- वरुण जायसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एक थी सोनिया गांधी नीत यूपीए की सरकार, इन्होंने पहले अर्थव्यवस्था में कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा की।
इससे संसाधनों की देशी उपलब्धता में कमी महसूस की जाने लगी।
मसलन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर स्वाभाविक व्यवसायिक परिस्थितियों को पैदा होने से रोका जाना…
महँगाई को बढ़ने से रोकने के नाम पर ही बैंक ब्याज दर में अत्यधिक वृद्धि करना ताकि घरेलू उद्योगों में प्रतिस्पर्धा की क्षमता नष्ट हो जाये…
अथवा खनिज संपदा बहुल क्षेत्रों में जल-जँगल-जमीन की आड़ में नक्सल स्पेशल ज़ोन बनने देना, जिससे देश उद्यमिता को कच्चे माल औऱ प्रतिस्पर्धी मूल्य पर प्राप्त मजदूरों की सप्लाई रूक जाये।
यह कुछ उदाहरण मात्र हैं
इनके सबके बीच यह भी चालाकी बरती गई जिससे कि वर्तमान आर्थिक गतिविधियों में तात्कालिक तेज़ी का एक भ्रम भी बना रहे।
मनरेगा, कृषि कर्ज़ माफी, श्रम मूल्यों में जबरन वृद्धि और रेल यातायात मूल्यों में निरंतर कमी इसी कड़ी का हिस्सा थे।
इन सबने लोकप्रियता को कम होने नहीं दिया और अच्छे कार्यकाल के भ्रम को बनाये रखा। नतीजे में 2009 में जीत पहले से ज्यादा बड़ी हुई.
भ्रम की इस अवस्था ने भीतर से सड़े हुए शरीर को चुस्त दुरुस्त दिखाये रखा जिसे बिके हुए पत्रकारों और दलाल अर्थशास्त्रियों की टीम ने तीव्र उछाल वाली आर्थिकी की संज्ञा देते रहने में कोई कमी आज तक नहीं की है।
इनक्लूसिव डिवेलपमेंट और हाइपर जीडीपी का जुमला 10 वर्ष लालकिले की प्राचीर से गढ़ा जाता रहा और भाँग जैसे इस नशे से ताकतवर दिख रहे देश के विधाता अनर्थ-शास्त्री मनमोहन सिंह अपनी बेबसी के साथ झूमते रहे।
कल प्रधानमंत्री मोदी संसद में काँपते शब्दों के साथ स्वीकार कर रहे थे कि चार वर्ष लगे हैं उन्हें इस भाँग के नशे को उतारने में, शरीर अब जाकर बाहर से भले ही कुछ कमज़ोर दिखे पर भीतर से मज़बूत हो रहा है।
मनमोहिनी अर्थव्यवस्था के ओलिम्पिक के सारे मैडल डोपिंग से आये थे जो देर-सवेर छीन लिए जाने थे।
वर्तमान कोच मेहनत की कीमत समझता है इसलिए आम आदमी हो या खास सबको पसीना बहाने पर मजबूर कर रहा है। जिनको डोपिंग की लत लग गई है वो इसकी विदाई चाहते हैं.. बस इतनी सी बात है।
नहीं क्या?
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