सामान्य सर्दी ज़ुकाम और दो दिन का बुखार शरीर तोड़ देता है। हफ्ते भर के मलेरिया और टायफायड से तो शरीर में कमज़ोरी आ जाती है।
और अगर कहीं बुखार बिगड़ गया तो लेने के देने पड़ जाते हैं। ठीक से इलाज ना हो तो यह घातक भी हो सकता है।
कमज़ोर शरीर में फिर अन्य बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। अर्थात एक मच्छर आप की बैंड बजा देता है। पीलिया टाइप की बीमारी हो गई तो आप लम्बे चक्कर में पड़ जाते हैं।
बीमारी कोई भी हो, उसका इलाज समय पर किया जाना चाहिए और बीमारी के दूर होते ही कमज़ोर शरीर के लिए अच्छी खुराक की आवश्यकता होती है। अब आजकल के दूध-फल में तो वो बात रही नहीं, तो टॉनिक और सप्लीमेंट देने का युग है।
बीमारी स्वस्थ शरीर को भी लग सकती है मगर कमज़ोर शरीर में इसकी संभावना अधिक हो जाती है। कुपोषण से बचने की सलाह इसीलिए दी जाती है।
इस तथ्य और सत्य का दुरूपयोग भी किया जा सकता है। अगर किसी को मारना है तो उसे जहर देने की जरूरत नहीं। बासा और सड़ा हुआ भोजन देने से पहले वो बीमार पडेगा, ऐसे में उसका इलाज ना करो तो वो ऐसे ही कुछ दिनों में बीमारी से मर जाएगा।
इस तरह की हत्या में कोई कानूनी पचड़ा भी नहीं। दुनिया को समझ ही नहीं आएगा। ऐसी धीमी मौत किसी को नज़र भी नहीं आती। मरने से पहले ये बीमार आदमी आप के चंगुल में भी आ जाता है। आप की दया पर ही जीता है। और जब तक जियेगा, भाग नहीं सकता। चूँकि आप पर निर्भर होगा तो आप उसका शोषण जी भर कर सकते हैं।
इतिहास गवाह है, सत्ता के गलियारे ऐसी कहानियों से भरे पड़े हैं। अधिकांश बर्बर शासक यही फार्मूला अपनाते रहे हैं। किसी किसी के कारनामे नज़र आते हैं, किसी के नहीं।
यह फार्मूला किसी समुदाय, समूह, देश के साथ भी किया जाता रहा है। ऐसा करने वालों में विदेशी शासक अधिक होते हैं। वे अपने गुलाम देश को धीरे धीरे कुपोषित करते हैं और फिर बीमार कर मार देते हैं। एक बीमार कमज़ोर आदमी हो या देश, जब किसी काम का नहीं रह जाता तो वो विरोध कहाँ से करेगा।
हिन्दुस्तान तो हज़ार साल ग़ुलाम रहा है। दुनिया में एकमात्र सभ्यता है जो फिर भी ज़िंदा है। वरना सभी प्राचीन सभ्यतायें मर चुकी हैं। अमेरिका में रेड इंडियन का नामोनिशान नहीं, अफ्रीका में या तो अरब की धर्म सत्ता है या रोम की। पाकिस्तान से लेकर सुदूर ग्रीनलैंड तक और बांग्ला देश से लेकर आस्ट्रेलिया तक इन्ही दोनों का अप्रत्यक्ष शासन है। उत्तर में तिब्बत से लेकर चीन मंगोलिया भी अपने मूल रूप स्वरुप में नहीं बचे।
बस बीच में सनातन हिन्दुस्तान बच गया। मगर इस हज़ार साल में ये सभ्यता कितनी बीमार कर दी गई, क्या उसकी कल्पना भी हममें से कभी किसी ने की है ?
कहते हैं, अधिक उम्र में बीमार होने की संभावना अधिक होती हैं। कीटाणु आसानी से हमला करते हैं। सनातन तो आदि सभ्यता है अर्थात प्राचीनतम। ऐसे में इसके बीमार होने की संभावना भी अधिक थी। ऊपर से क्रूर मुग़ल और फिर कपटी अंग्रेज़ शासन!
इन दोनों ने मिल कर सनातन को ऐसा सड़ा-गला भोजन खिलाया था, इसी उम्मीद से कि यह जल्द मर जाएगा। मगर यह है कि बच गया। लेकिन किस हाल में है? इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब दो दिन का बुखार और सात दिन का मलेरिया शरीर तोड़ कमज़ोरी कर देता है तो यहां तो हज़ार साल बीमार रहा है ये देश।
इस हज़ार साल की बीमारी में इतनी अधिक कमज़ोरी आ चुकी है कि पूछो मत। इसी कारण हम नई नई बीमारी जल्द पकड़ते हैं। हम बच तो गए, मगर हमारे अंग सही ढंग से काम नहीं कर रहे।
पैर कमज़ोर होने के कारण हम ठीक से चल नहीं पाते, इसलिए कई बार घिसटते नज़र आते हैं। पाचन शक्ति बोल चुकी है इसलिए उल्टी हो जाती है, बेवक्त कहीं भी दस्त लग जाते हैं।
एक जर्जर बीमार आदमी के जो भी लक्षण हो सकते हैं वो सब हममें देखे जा सकते हैं। हम कहीं भी किसी का भी सहारा लेने लग पड़ते हैं। अब करें भी तो क्या करें, ये सनातन मरता भी तो नहीं। मरे, तो रोम और अरब अपना अपना झंडा गाड़े। वो तो अपने अपने झंडे के डंडे से भी रोज इसे मारते हैं, मगर ये सनातन है कि मरता ही नहीं। मरे भी कैसे, नश्वर होता तो सनातन कैसे कहलाता।
सनातन को तो जीना है। सृष्टि के साथ सृष्टि के अंत तक, निरंतर। मगर सवाल उठता है कि ऐसे बीमार रहकर जीना भी कोई जीना हुआ।
इसे इलाज की जरूरत है। वो भी सही इलाज की। और इलाज के बाद टॉनिक की। औषधियां और टॉनिक तो हमारे पास पर्याप्त हैं। वेदों में, उपनिषद ब्राह्मण और गीता, इन औषधियों के ज्ञान से भरे पड़े हैं, यही नहीं महाभारत और रामायण में इसके उपचार की विधि भी आसानी से समझने के लिए कथा रूप में दी गई है।
बस कमी है तो इलाज करने वाले वैद्य की। जो डॉक्टर हैं भी, वो अंगरेज़ी दवा देने के चक्कर में हैं। क्यंकि उसमें उनका कमीशन है। जबकि सब को यह पता है कि इन अंग्रेज़ी दवा के साइड इफ़ेक्ट हैं।
अब पहले से कमजोर शरीर ये साइड इफ़ेक्ट कैसे झेल पायेगा। ऊपर से इन दवाइयों में मिलवाट है। जो हमारी विचारधारा इतिहास ग्रंथों में विष की तरह चुपचाप घोल दी गई है। जितना हम ये दवाई खाते हैं उतना हम बीमार पड़ते चले जाते हैं। कुछ दिनों के लिए तो आराम मिलता है मगर बीमारी लौट लौट के आती है। पहले से अधिक विकराल रूप लिए। अब यह बीमारी क्रॉनिक रूप ले चुकी है।
जिस तरह से शुगर के रोगी को बोल दिया जाता है कि अब उसे इस बीमारी के साथ ही जीना है, कुछ खा नहीं सकते, पी नहीं सकते, मीठा तो बिलकुल नहीं, उसकी जगह सुबह शाम हर खाने के बाद एक कड़वी गोली लेनी जरूरी है।
ठीक इसी तरह, आर्य बाहरी आक्रमणकारी थे द्रविड़ों के हत्यारे थे, जैसे कड़वे घूँट हमें हर सुबह नाश्ते के साथ लेना है, ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने वैश्यों और शूद्रों का शोषण किया यह डोज़ दिन के खाने के साथ लेना है।
ये चारों रोगी भाई एक ही डॉक्टर के पास इलाज करा रहे हैं, मगर सब की बीमारी एक ही होते हुए भी (कि चारों भाई हज़ार साल एक साथ गुलाम रहे) सब को अलग अलग कम्पनी की दवाई लिखी जा रही है, खरीदने की दुकान भी अलग अलग बताई जा रही है, सिर्फ इसलिए कि ये एक जगह किसी भी तरह इकठ्ठे ना हो सकें और अपने रोग के बारे में आपस में चर्चा ना कर लें।
ऐसा करते ही ये समझ जाएंगे कि इन सब को एक ही रोग एक ही मच्छर के काटने से हुआ है। इनके एकजुट होते ही ये परिवार, मोहल्ले में एकबार फिर से आकर्षण का केंद्र होगा। ऐसा कोई भी नहीं चाहेगा। ऐसा ना हो, इसके लिए इन को अलग अलग चार दिशाओं में भेज दिया जाता है।
अब इन चारो भाइयों को कौन समझाए कि शुगर का शर्तिया इलाज सनातन के पास है। पहले अपने मन मस्तिष्क में दृढ़ निश्चय करो, फिर कदमों से नियमित सैर करो और साथ ही हाथ के सहयोग से सम्पूर्ण शरीर के व्यायाम और फिर उँगलियों से अनुलोम विलोम के द्वारा सांसों को साधो।
कुछ ही दिनों में फायदा नज़र आने लगेगा, शरीर में शक्ति के आते ही शरीर के सभी अंग मिलकर सूर्य नमस्कार करो। घर के भीतर, सड़क पर, पार्क में, ऑफिस में दिन भर शरीर को एकजुट, नियंत्रित और संयमित रखो।
फिर देखो, कैसे कुछ दिन में ही तुम्हारा चेहरा सूर्य की भांति चमकने दमकने लगेगा। जिसकी रोशनी से दुनिया का अँधियारा छंटेगा हटेगा और नई सुबह की किरणों से विश्व-मानव नहा उठेगा। सनातन की ध्वजा लहरायेगी और तुम एक बार फिर विश्वगुरु कहलाओगे।
विश्व पर्यटक के सामने ताजमहल को भारत की पहचान बनाना भी तो तुष्टीकरण नहीं?