कल का दिन दो मार पीट की घटनाओं के नाम रहा है और इन दोनों ही घटनाओं ने मेरा मन बड़ा खिन्न कर दिया है।
यह भी कोई बात हुई?
क्या इसी से भारत बदलेगा?
इस मरियल सी धक्का मुक्की और इस एक आध लप्पड़ झप्पड़ को क्या हमें वाकई मार पीट मान लेना चाहिये?
मेरा मानना है कि यह सब नहीं होना चाहिये। यदि हमें अपने आक्रोश को उसकी परिणीति तक पहुंचने में संकोच है तो हमें अपने आक्रोश को लज्जित नहीं करना चाहिये।
इससे वातावरण को क्षति पहुंचती है और यह लोगों के लिये एक आदर्श न बनकर एक अपंग सा उदाहरण बन जाता है।
मैं, मौलाना और धूर्त नक्सली अग्निवेश के साथ हुई हाथापाई से जिस तरह से लोगों को हर्षोल्लासित और उत्साह से भरा देख रहा हूँ, उसको देखते हुये यह और भी आवश्यक है कि हम अपना आक्रोश प्रदर्शित करने के लिये अच्छे उदाहरण को सामने लाएं।
मेरे मुताबिक आदर्श स्थिति तो यही होनी चाहिये कि टीवी स्टूडियो में दोनों महिलाओं को मौलाना को चप्पल से सूतना चाहिये था और उस धूर्त नक्सली को सड़क में घसीटते हुये बल भर कूटना चाहिये ताकि वो कुछ दिन अस्पताल में अपनी टूटी हुई आत्मा के साथ, टूट हुये शरीर को लेकर पड़ा रहता।
यदि कल यह दोनों घटनाये ढंग से होती तो समर्थकों को सार्थक प्रेरणा मिलती और वे इन दोनों उदाहरणों से प्रेरित होकर नये नये उदाहरण सामने लाते।
कल की घटनाओं को लेकर जो मीडिया व सेक्युलर वर्ग, हो हल्ला कर रहा है उसका संज्ञान लेने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनका तो यही काम है।
यह हल्ला एक थप्पड़ पर भी उतना ही होगा जितना अस्पताल के बिस्तर पर लेटाये जाने पर होता। इसलिये मेरी सलाह है कि जो आक्रोशित हैं वे या तो हाथ न उठाएं और यदि उठाएं, तो उनको पूरी तरह उठाएं।
मैं भले ही कल की घटनाओं से असंतुष्ट हूँ लेकिन इस बात से सन्तुष्ट हूँ कि आगामी एक वर्ष बड़ा मज़ेदार रहेगा।
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