बचपन में मेरे घर गाय थी, मेरी दादी उसकी देखभाल करती थी। घर में सभी सदस्य गाय का दूध पीते थे, लेकिन गाय हमारी माता है, ऐसा इमोशनल एहसास कभी हुआ नहीं।
दूध देती है, इसीलिए व्यक्ति अपनी महानता दिखाते हुए उसे माता बोल देता है, एक बाल मन ऐसा ही सोचता था।
पिछले कुछ वर्षों से जब से कोयले प्लांट में कृषि अपशिष्ट के उपयोग से विद्युत उत्पादन (Biomass Co-firing) के प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहा हूँ, गाय का वास्तविक महत्व क्या है, मानवता का अस्तित्व गाय पर कैसे टिका है, ये साफ़ साफ़ अनुभव कर पा रहा हूँ।
इस प्रोजेक्ट की शुरूआत में सबसे पहले दिमाग़ में आया कि कृषि अपशिष्ट जलाने की प्रथा पिछले 10-15 वर्षों में ही क्यों शुरू हुई, उसके पहले किसान इसका क्या करते थे? हमने पंजाब व हरियाणा के किसानों से बात की।
किसानों ने बताया कि पहले हाथ से कटाई करते थे, तो जड़ से काटते थे और कृषि अवशेष को एकत्रित कर लेते थे, जो गाय बैलों का चारा होता था।
तब हर एक किसान के पास इतने गाय बैल होते थे कि ये कृषि अपशिष्ट उसी में खप जाता था। धान की पराली भी पशु खा लेते थे। बदले में खेत के लिए मुफ़्त का खाद अर्थात गोबर गोमूत्र और आय का अन्य साधन दूध मिल जाता था। उसी कृषि अपशिष्ट को खाकर बैल खेत भी जोतते थे।
लेकिन अभी हार्वेस्टर से कटाई करते हैं जो 1 फ़िट ऊपर से काटता है और कृषि अवशेष खेतों में ही रह जाता है। चूँकि अब किसानों के पास भी गाय पर्याप्त नहीं रहीं हैं, इसलिए कृषि अपशिष्ट उसके किसी काम का नहीं.
हालाँकि गेहूँ व दाल का कृषि अपशिष्ट ज़रूरत भर का काट के रख लेते हैं। बाक़ी जला देते हैं। चूँकि इसे काटने में ख़र्च आता है और उसका कोई उपयोग नहीं, अतः खेतों में जलाना सस्ता विकल्प है।
अब इसके दुष्परिणाम क्या हो रहे हैं, वो देखने लायक है। पहले गाय के गोबर की खाद या जीवामृत खेतों में उर्वरता के लिए ज़रूरी कार्बन व नाइट्रोजन का अनुपात अर्थात C:N ratio (25) बनाए रखता था।
ये मुफ़्त में उपलब्ध था। उत्पादन भी ज़्यादा होता था। अब महँगे रासायनिक खादों के प्रयोगों के बाद भी C:N ratio गिरता जा रहा है जिससे उर्वरता गिरती जा रही है, प्रति एकड़ कृषि उत्पादन भी गिर रहा है।
साथ ही भूमि में C:N ratio घटने का मतलब है, कार्बन का कार्बन डाई ऑक्सायड के रूप में हवा में जाना जो ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमट चेंज के लिए ज़िम्मेदार कारक है!
कृषि वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस दर से देश के कई हिस्सों में 25 वर्षों के बाद धरती अपनी उर्वरता खो देगी। तब साधारण बीजों से खेती सम्भव नहीं होगी। GM (Genetic Modified) बीज ही एक मात्र विकल्प होंगे जो हवा से सीधे नाइट्रोजन सोखेंगे। GM बीजों के क्या दुष्परिणाम होंगे, ये वर्षों के बाद मालूम चलेगा।
कहने का मतलब कृषि की sustainability के लिए गाय की अहम भूमिका थी। गाय कृषि कार्य में पारिस्थितिकीय संतुलन (ecological balance) बनाए रखती है। कृषि इसके बिना sustainable नहीं है और जब कृषि sustain नहीं करेगा तब मानवता भी sustain नहीं करेगी।
इसीलिए भारतवर्ष में गाय को अलग स्थान दिया गया। हमारे पूर्वज गाय का महत्व अच्छी तरह समझते थे। पिछले 10 हज़ार वर्षों से व्यक्ति गाय गोबर आधारित खेती कर रहा था, कोई दिक़्क़त नहीं हुई। लेकिन पिछले 50 वर्षों में भूमि की उर्वरता एक चुनौती बन गई। सोचने की बात है!
और न केवल उर्वरता बल्कि कृषि अपशिष्ट जलाने से वायु प्रदूषण अलग हो रहा है। रासायनिक खेती से भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। माने मृदा, वायु, जल, ये सारे ही प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग गाय आधारित खेती के घटते जाने से बढ़ रहे हैं।
इसी बीच कुछ कम्पनियाँ मौक़े की नज़ाकत देखते हुए organic farming के नाम पर कम्पोस्ट व हैप्पी सीडर का प्रमोशन कर रही है।
पद्मश्री प्राप्त कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर कहते हैं कि कंपोस्ट रासायनिक खाद से भी 4 गुना ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि इसमें कीट तेज़ी से लगते हैं और कीटनाशक की ज़रूरत 4 गुना ज़्यादा पड़ती है जिससे लागत बढ़ने के अलावा फ़सल भी ज़हरीली हो जाती है। भूमिगत जल भी ज़हरीला होता है। कम्पोस्ट से मीथेन और नायट्रस आक्सायड निकलता है जो CO2 से भी क्रमश: 24 गुना एवं 321 गुना ज़्यादा ग्लोबल वॉर्मिंग पैदा करता है।
सुभाष पालेकर कहते हैं कि कंपोस्ट, गाय को रिप्लेस नहीं कर सकता बल्कि ये उन्ही कम्पनियों द्वारा चलाया गया दूसरा षड्यंत्र है जिन्होंने खाद्य सुरक्षा के नाम पर कभी रासायनिक खाद को प्रमोट करवाया था जिसका दुष्परिणाम आज सामने है।
सुभाष पालेकर ने गाय आधारित खेती पर शोध किया और उसे 50 लाख किसानों तक पहुँचाया जो अब शून्य लागत खेती कर रहे हैं और उत्पादन भी ज़्यादा है जिससे वो ख़ुद के उद्धार के साथ साथ पर्यावरण का उद्धार भी कर रहे हैं।
हैरानी की बात है कि देश के 5 स्टार पर्यावरणविद एक मेंढक के विलुप्त होने से ecological balance का अध्ययन करके बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखते हैं। ये गाय को लेकर इतने उदासीन कैसे हैं? कीट पतंगों का भी प्रकृति में महत्व खोजने वाले पर्यावरण विद गाय का प्रकृति में महत्व क्यों नहीं खोज पाएँ?
मालूम हो अभी देश में कुल 50 करोड़ टन कृषि अपशिष्ट पैदा होता है, जिनमें से 14 करोड़ टन आग लगा दिया जाता है। जहाँ आग नहीं लगा रहे हैं, वहाँ किसान अभी गाय आधारित खेती कर रहे हैं।
पर्यावरण की दृष्टि से कृषि अपशिष्ट को गाय आधारित खेती के माध्यम से वापस भूमि में जाना चाहिए, उनकी जगह पावर प्लांट नहीं हैं। लेकिन दुर्भाग्य से ये जो 14 करोड़ टन कृषि अपशिष्ट के जलाने की समस्या है उसका त्वरित निदान तो यही है कि उसे पावर प्लांट में इस्तेमाल किया जाया क्योंकि प्रति एकड़ गाय की जनसंख्या तुरंत नहीं बढ़ने वाली।
इस पाप के प्रायश्चित में 15 वर्ष-25 वर्ष समय लगेगा। खेत में जलाने से अच्छा है, प्लांट में जलाओ, बिजली बनाओ और साथ में राख को हवा में जाने से होने वाले वायु प्रदूषण को रोको।
लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से एक long term वृहद योजना के तहत प्रति एकड़ गाय की जनसंख्या का टारगेट सेट करना चाहिए, गायों की जनसंख्या वृद्धि हेतु योजना लानी चाहिए, गाय आधारित कृषि का संरक्षण करना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण कृषि अवशेष गाय के पेट में समा जाए जो बाद में वापस भूमि में समा जाए और अमृत समान दूध में बदल जाए।
मानवता इसी ecological balance पर टिकी है! गाय जन्म नहीं देती लेकिन गाय मानवता का पोषण करती है, इसीलिए गाय माँ है!