जापान के सामुराई योद्धाओं की गौरवशाली परंपरा के बारे में सबने ही सुना है. सामुराई जापान के परंपरागत सैनिक और शासक वर्ग थे.
मध्यकालीन जापान छोटे छोटे टुकड़ों में बंटा था. पूरे जापान पर डाइमयो सरदारों का कब्ज़ा था.
इन सरदारों के ऊपर एक मुख्य सेनापति होता था, जिसे शोगुन कहते थे. हर डाइमयो सरदार के पास अपने सैनिक होते थे जिन्हें सामुराई कहते थे.
सामुराई सिर्फ अपने युद्ध कौशल के लिए ही नहीं, अपने कठोर अनुशासन और कोड ऑफ ऑनर यानी सम्मान-परंपरा के लिए भी जाने जाते थे. जीवन और मृत्यु को समभाव से स्वीकार करना और वीरतापूर्ण मृत्यु का वरण करना उनका जीवन मंत्र था.
सिर्फ सामुराई को दो तलवारें लेकर चलने का अधिकार था, एक लंबी और दूसरी छोटी. और दूसरी छोटी तलवार का उपयोग यह था कि किसी अपमानजनक स्थिति में हार स्वीकार करने के बजाय सामुराई उस तलवार से अपने प्राण त्याग देता था.
सोलहवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में ओडा नोबुनागा, टोयोटोमी हिदेयोशी और तोकुगावा इयेओसी नाम के तीन सरदारों ने क्रमिक रूप से सभी डाइमयो सरदारों को हरा के अपने अधीन किया और पूरे जापान को राजनीतिक रूप से संगठित किया.
अंततः तोकुगावा इयेओसी शोगुन बना और उसने पूरी सत्ता अपने हाथ में केंद्रित करके तोकुगावा शोगुन वंश का राज्य स्थापित किया. तोकुगावा वंश का शासन 260 वर्षों तक चला और जापान की सैन्य परंपरा के विपरीत ये मूलतः शांति के ढाई सौ वर्ष थे.
शांति का काल समृद्धि और संपन्नता लाता है. इस तोकुगावा शासन काल में एडो नाम का मछुआरों का गाँव टोक्यो नाम के महानगर में बदल गया. जापान में व्यापार और उद्योगों को बढ़ावा मिला. जापान ने इस दौर में अपनी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी किया और क्रिश्चियन मिशनरियों को देश से बाहर खदेड़ दिया.
पर शांतिकाल के अपने नुकसान भी हुए. तोकुगावा शोगुन ने सामुराई योद्धाओं के रैंक को वंशानुगत घोषित कर दिया. यानि अब सिर्फ सामुराई परिवार के ही बच्चे सामुराई बन सकते थे. और सामुराई को दूसरा कोई भी व्यवसाय करने की अनुमति नहीं थी.
डाइमयो सरदारों की शक्ति खत्म होने के साथ साथ सामुराई की उपयोगिता भी खत्म हो गई थी. अब उनके पास लड़ने को लड़ाइयाँ नहीं थी, तो वे बस बैठ कर गप्पें हाँकते और ऐश करते थे.
समय बिताने के लिए अपने पुराने गौरव की गाथाएँ पढ़ते सुनते थे और मनोरंजन के लिए वेश्याओं और गीशाओं के पास जाते थे. नव धनाढ्य व्यापारी शौक और स्टाइल के लिए कुलीन सामुराई की नकल करने लगे.
पूरे जापान में जैसे जैसे शहर बसे, वेश्यालयों की भरमार हो गई. समृद्धि के साथ साथ जापान का सांस्कृतिक चारित्रिक पतन भी हुआ. 19वीं शताब्दी में मेजी रेस्टोरेशन के साथ साथ सामुराई वर्ग की मान्यता भी समाप्त कर दी गई.
लेकिन हाथी मरा भी नौ लाख का होता है. सामुराई संस्कृति की छाप जापानी समाज पर गहरी है. आज भी आप जापानी समाज में जो अनुशासन और सुव्यवस्था देखते हैं, वह इसी सामुराई सैन्य संस्कृति की देन है.
शांति जहाँ समृद्धि देती है, युद्ध अनुशासन देता है. एक समाज को जहाँ शांति चाहिए, सभ्यता के सम्यक विकास के लिए युद्ध भी चाहिए.
पता नहीं, हम कश्मीर को समस्या क्यों समझते हैं और कश्मीर में शांति स्थापित करने के फेर में क्यों पड़े हैं? क्यों चाहिए कश्मीर में शान्ति?
कश्मीर तो एक अवसर है. बिना किसी दूसरे देश को शामिल किए सतत युद्धाभ्यास का अवसर है. देश को एक सजग सेना चाहिए, सैन्य संस्कृति चाहिए. समाज को नायक चाहिए, शौर्य और वीरता के प्रतिमान चाहिए.
होने दो काश्मीर में आतंकवाद… लड़ने दो उन्हें आज़ादी के लिए. बस, उन्हें पकड़ कर ठोकते रहो. दो करोड़ काश्मीरियों को टारगेट प्रैक्टिस का माल समझो. ये कौन से हमारे अपने हैं? उनको ठोकने में अपना जा क्या रहा है? पनपने दो आतंकवाद, ठोकते रहो लगातार.
भारत को तो कश्मीर में आंतकवाद को पाल पोस कर रखना चाहिए, जिससे सेना को हमेशा अच्छा युद्धाभ्यास मिलता रहे. एक बार उन्हें समझ में आ जाये कि उनका आतंकवाद हमारे लिए काम की चीज है तो देखेंगे कहाँ से आएंगे आतंकवादी.
शासक को शासन करने के लिए, सत्ता की शक्ति को स्थापित करने के लिए शत्रु की आवश्यकता होती है. इतना अच्छा अवसर है कि आपके पास घर के पाले-पोसे शत्रु हैं. इन्हें कुचल कर रखिये, यह बचे खुचे शत्रुओं के लिए सबक का काम भी करेगा, उन्हें उनकी औकात में रखेगा.