एक पाती, गुज़रती उम्र के नाम
पिता!
मैं, जब भी तुम्हें नज़दीक से देखती हूँ,
लगता है जैसे वर्षों से गुंफित मजबूत कोई फूल अपनी
पंखुड़ियों को स्वतः खोलने लगा हो
मानो काल-चक्र की वलयाकार बुनावट पर वृद्ध होती कोशिकाओं की हार, अब तुम्हें अबूझी न रही
बढ़ती उम्र अब खेदित नही है, बल्कि अति संवेदनशील होकर जीवन के प्रति उपरत होने को पूर्ण प्रयासरत है
तुम्हें देखकर मुझे यूँ लगता है, पिता!
कि तुम्हारी उम्र अब नदी सी गुज़र नहीं रही है
बल्कि किसी घाट पर कुछ थम सी गयी है,
गोया, तुमने जीवन संघर्ष से ये पल चुराकर तलघर में रख छोड़े थे
हाँ, मगर यह भी सच है कि
मुझे तुम अब उस मृण्यमूर्ति की तरह स्थिर से लगते हो,
जिसे अब एक मजबूत कुम्हार की सख्त जरूरत है
भले ही वह तुम्हारी गिरती परतों को पुनः लीपने की कला में निष्णात न हो
पर, अनवरत तुम्हारी काँपती ऊँगली को थामने का
निष्कुट भाव अन्तस् में जरूर हो
औऱ तब तक लीपने का माद्दा रखता हो,
जब तक कि तुम्हें यह विश्वास न हो जाये कि
अब तुम तीव्र काल चक्र में बह ज़रूर रहे हो
लेकिन खत्म नहीं हो चुके हो..
जब मैं तुम्हे देर रात अपनी अंश की आहट को सुकूँभरी हथेली में चेहरा रख सोते देखती हूँ
तो कल्पना करती हूँ कि कैसे बरसों पहले
तुमने कठोर पर्यवेक्षक की भूमिका में रहने के बाद भी बेसुध सोये हुए अपने अंशों के बाल सहलाये थे
पिता! तुम्हें अब भी उनकी नींदों में खाँड सा होकर रहना है…
मैंने प्रेम शब्द का सही स्थान तब-तब जाना है
जब तुम अपनी जीवन संगिनी से एकांत में बातें करते हो
तब ही मैं जान पाती हूँ कि
प्रेम में पूर्ण मोक्ष संभव ही नहीं है
इसमें अभिशप्त रहने में ही तृप्त होकर ही क्षणिक मुक्ति है
प्रेमानुभूति समय से परिसीमित हो ही नहीं सकती है…
अब, तुम्हारे कृषकाय होते शरीर को देख मुझे वह
घर याद आता है
जिसे अब अपनी छत पर उस पेड़ की घनी छाया की ज़रूरत है
जिसे तुमने पूर्व में रोपकर, वरद मुद्रा में सत्कीर्ति हेतु प्रार्थनाएं करते हुए पितृत्व पाया था…
हाँ पिता!
तुम, अब वयोवृद्ध नहीं, मेरे जीवन में अमरत्व को पाते जा रहे हो…
“सन्तति ही बनाये रखना था”
तुम्हारा मुझसे,
क्वांटम-फ़िज़िक्स के नियमानुसार मिलते रहना
जीवित शव-विच्छेदन सा रहा है, पिता !
हमारी अनगिनत मुलाक़ातों में
चेतनाओं को तरंग रूप में सहयोगी नहीं होना था…
तुम्हें तो गाँव के सीमांत में
वह लम्बी धूसर दाढ़ी वाला मजबूत बरगद होना था;
जो, मुझे आभासी दिव्य रक्षा-कवच भेंट नही करता!
बल्कि, स्वयं अपनी शाखाओं में
मेरे नाम का एक घना शहर बसाता, जिसके
मानचित्र में लड़खड़ाते हुए मेरे घुटनों का छिल जाना था
भविष्य में माँ के तीज-त्यौहार हो जाना था!
इतिहास का अध्येता भी तुम्हें ही होना था;
जिसे, सभ्यता-संस्कृति के क़िस्से सुनाते हुए
“इतिहास हो जाने” का सही भावार्थ बताना था..
न कि स्वयं ही किसी एलियन सा कौतुक सिद्ध होना था!
मुझे, तुम्हें टूटते तारों में नहीं खोजना था
तुम्हें तो मेरी अबोध हथेलियों में सुपर-मैन हो जाना था
व दुनिया को झाँकते हुए मेरे कांपते पैरों में डैने उगाने थे!
तुम्हें सुलगती लकड़ियों को घूरती माँ के समीप होना था
जो, चटकते कोयलों को आँसुओं से शीतल कर रही थी!
“विगत व चिर-विदाई से शिकायत नहीं करते”
क्योंकि यह पाठ माँ की पनीली कोरों ने समझाया है;
तो, आज दूर देश ब्याही तुम्हारी गौरेया को
एक सन्देश भेजना है…
“मेरे लिये ‘ पिता का न होना’ इतना असहनीय न रहा
जितना, मेरा असमय ही माँ को भारहीन करने के
अथक प्रयास में स्वयं ही ‘मेरा पिता हो जाना’ था
पिता!
तुम्हें मुझे, बस सन्तति ही….. बनाये रखना था”
– मंजुला बिष्ट