दिल्ली में एक कॉलोनी है, कठपुतली कॉलोनी. यहाँ कई तरह के कलाकार रहते हैं, कठपुतली का नाच दिखाने वाले, नट, ढोल बजाने, हस्तशिल्प कलाकार.
कई कलाकार सरकार से पुरस्कृत भी हैं. लेकिन ये कॉलोनी ऊँचे नाम और शान वाले आर्टिस्टों के घरों जैसी कॉलोनी नहीं है.
कठपुतली कॉलोनी दिल्ली के शादीपुर डिपो के पास बसी एक झुग्गी झोपड़ी कॉलोनी या स्लम है.
करीब 9 साल पहले DDA (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने दिल्ली के स्लम एरिया को विकसित करने की एक योजना बनाई, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल पर.
कठपुतली कॉलोनी पहली ऐसी स्लम कॉलोनी थी जिसे डेवलपमेंट के लिए चुना गया.
कॉलोनी में रहने वाले लोगों को वहां से हटाकर एक नए एरिया में मेकशिफ्ट मकानों में शिफ्ट किया जायेगा, कच्चे पक्के मकानों को तोड़कर नए अपार्टमेंट नुमा फ्लैट बनाये जायेंगे.
ये अपार्टमेंट एक निजी बिल्डर बनाएगा. बनने के बाद मेकशिफ्ट मकानों से लोग वापस आकर इन नए फ्लैटों में रहेंगे. जिसके लिए उन्हें मामूली कीमत करीब एक लाख देनी होगी.
बिल्डर को ज़मीन का एक टुकड़ा मिलेगा, जहाँ वो मॉल, कमर्शियल स्पेस बनाकर बेचकर अपनी कॉस्ट और मुनाफा कमायेगा.
निजी बिल्डर के रूप में रहेजा बिल्डर को ये प्रोजेक्ट मिला. उन्होंने पास ही आनंद पर्वत इलाके में एक जमीन लेकर वहां मेकशिफ्ट घर बनाये और कठपुतली कॉलोनी के लोगों की बारी थी वहां शिफ्टशिफ्ट होने की.
आधे लोग शिफ्ट हुए. कुछ नहीं भी हुए. किरायेदारों को शिफ्ट होने की सुविधा नहीं थी, उन्हें घर ही खाली करने थे. कुछ घर के मालिक ऐसे थे जिनके पास पूरे कागजात नहीं थे, वो भी शिफ्ट नहीं हो पाए.
और फिर जैसा होता है, इन लोगों ने घर खाली करने से इंकार कर दिया. दो-तीन साल इंतजार के बाद DDA ने पुलिस बल के द्वारा उन्हें हटाने की कोशिश की.
लाठीचार्ज हुआ, आंसू गैस छूटी. लेकिन लोग हटे नहीं.
दिल्ली की वजह से ये भारी खबर भी बनी. अख़बारों में प्रमुखता से प्रकाशित भी हुई.
जहाँ ऐसे क्लेश होते हैं, वहां NGO, एक्टिविस्ट और कम्युनिस्ट जरूर पहुँचते हैं.
अदालत में केस दायर हो गए. लेख लिखे जाने लगे. प्रदर्शन होने लगे.
और इस बीच जो लोग मेकशिफ्ट घरों में एक कैम्प में शिफ्ट हो चुके थे, वो अपने नए घरों का इंतजार ही करते रहे.
रहेजा जो अपनी पूँजी लगा चुका था, लगा रहा था वो भी इंतजार कर रहा था. दोनों तरफ के लोगों, आनंद पर्वत के कैम्पकैम्प और कठपुतली कॉलोनी में रह गए लोग अधर में लटके थे.
लेकिन कम्युनिस्टों की दुकान चल पड़ी थी.
पिछले साल अक्टूबर अंत में DDA ने थक-हार कर फिर से 300 पुलिस वालों की टीम लेकर बुलडोज़रों के साथ चढ़ाई की.
इस बार उनके सामने कम्युनिस्ट सांसद डी राजा की पत्नी के नेतृत्व में ढेरो एक्टिविस्ट और लोग थे.
लेकिन इस बार करीब 400 मकान ढहा दिए गए.
खैर उसी दिन एक नवजात बच्ची और एक वृद्ध की मौत भी हुई.
अगले दिन सो कॉल्ड एक्टिविस्टों की फेसबुक वॉल, ट्विटर हैंडल इस घटना से रंगा हुआ था.
पुलिस ज्यादती, सरकार, ब्यूरोक्रेसी, और एक बिल्डर, उनका नेक्सस. गरीब लोगों के टूटे घर, दो मौते.
एक कम्युनिस्ट को क्रांति लाने के लिए और क्या चाहिए.
इसी बीच एक्टिविस्टों के तमाम शोर गुल के बीच खाली हो चुकी जमीन पर इस 25 अप्रैल को नए घरों के निर्माण का काम शुरू हो गया.
सैकड़ो परिवार जो टेम्परेरी शेलटर में रहने को सालों से मजबूर थे, उन्हें दो सालों में उनके अपने घर मिल जायेंगे.
बहरहाल कम्युनिस्ट अभी इस बात पर हल्ला मचा रहे हैं कि रहेजा को इस तमाम जमीन में मॉल और आफिस स्पेस बनाने के लिए सड़ककिनारे की ज़मीन क्यों दी गयी है, कॉलोनी के अंदर की ज़मीन क्यों नहीं. ये करप्शन है, मिलीभगत है.
ज़रूरी नहीं कम्युनिस्टों का सो कॉल्ड प्रोटेस्ट जनहित में ही हो. वो हर जगह पहुँचते हैं, संघर्ष न भी हो तो उसकी ज़मीन बिला वजह तैयार करते हैं.
मारुति में उन्होंने यही किया, UP के सोनभद्र जिले में डैम बनाने का विरोध कर रहे ग्रामीणों पर कुछ साल पहले पुलिस की गोली चली थी जिसमें 20 लोग मारे गए थे. वो प्रोटेस्ट एक NGO द्वारा प्रायोजित था. उसकी कहानी फिर कभी.
तमिलनाडु में तूतीकोरिन में भी एक प्रोटेस्ट हुआ जिसमे पुलिस फायरिंग में दर्जन भर लोग मारे गए. उसकी भी एक ऐसी ही कहानी निकलेगी.
Uprooted Lives: Delhi’s Kathputli Colony Residents Watched Their Homes Razed to the Ground
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