फिल्में और साहित्य समाज का दर्पण होते हैं. कोई देश या उसका समाज किस दिशा में बढ़ रहा है, यह अगर जानना हो तो वहां लिखे जा रहे साहित्य और बन रही फिल्मों को देखना चाहिए.
हालांकि इस विचार से कुछ लोगों की असहमति हो सकती है, वह कह सकते हैं कि अगर समाज में लुगदी साहित्य लिखा जा रहा और घटिया फिल्में बनाई जा रही हैं तो यह इस बात का परिचायक नहीं है कि समाज भी गलत दिशा में जा रहा है. (बा-तर्ज… कुछ मुसलमानों के आतंकी हो जाने के कारण, आप पूरे मुस्लिम समाज को आतंकी घोषित नहीं कर सकते).
किसी देश या समाज का अधोपतन करना हो तो उसके चार चरण हैं.. सांस्कृतिक पतन, सामाजिक पतन, नैतिक पतन और चारित्रिक पतन…
वामपंथ के वैश्विक झंडाबरदारों ने इस सूत्र का प्रतिपादन किया और वो इसके वैचारिक क्रियान्वयन में सफल भी रहे. मानव मन-मस्तिष्क में साहित्य और दृश्य माध्यमों का कितना प्रभाव है ये समझने में उन्होंने ज़रा भी देर नहीं की और जल्द ही इन दोनों माध्यमों में अपनी पैठ बना ली.
पढ़े हुए विषय को याद रखना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता है पर अगर वही विषय दृश्य के रूप में आपके सामने परोस दिया जाए तो आप उसे छवि के रूप में अपनी स्मृति में संग्रहित कर आजीवन याद रख सकते हैं.
इस तथ्य को कम्युनिस्टों ने जल्द ही पहचान लिया और चाशनी में डुबाकर अफीम चटाने के अपने पुराने धंधे को जीवंत बनाए रखने के लिए इस माध्यम का भरपूर उपयोग किया.
उन्होंने वाम पोषित पक्षकारिता, काल्पनिक इतिहास लेखन और एक पक्षीय वैचारिक गोष्ठियों के ज़रिए ये तथ्य स्थापित कर दिया कि दुनिया में शांति का केवल एक ही मज़हब है, बहुसंख्यक और सवर्ण समाज शोषक ही होता है, धनाड्य और श्रेष्ठी वर्ग का अत्याचारी और भ्रष्टाचारी होना तयशुदा है, अल्पसंख्यक अनादिकाल से दलित और दमित रहे हैं और यदि प्रतिक्रिया स्वरूप वो किसी की हत्या या बलात्कार कर दें तो इसे अपराध नहीं… व्यवस्था से उपजी निराशा का प्रस्फुटिकरण माना जाना चाहिए.
उनकी फिल्में देख कर ही हमने जाना कि मुगल-ए-आज़म अक़बर कितना महान शासक था जो जन्माष्टमी भी मनाता था और ख़ुद अपने हाथों से भगवान कृष्ण की प्रतिमा को झूला भी झुलाता था. युद्ध में जाने से पहले अपनी पत्नी से माथे पर विजय तिलक लगवाता था. और तो और वो इतना रहमदिल था कि उसने अनारकली को चुनवाने का हुक्म देने के बाद उसे सुरंग के रास्ते आज़ाद कर दिया था.
उनकी फिल्में देखकर ही हमने ये भी जाना कि कैसे एक रहमदिल मुस्लिम क़िरदार के बैगर राजश्री बैनर की किसी फ़िल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती… कैसे शोले जैसी फ़िल्म में अकेले इमाम साहब के लिए एक मस्ज़िद तामीर की जाती है, जिसमें जाकर वो अल्लाह से पूछ सके कि उन्हें और बेटे क्यों नहीं दिए गांव पर कुर्बान होने के लिए, क्यों दोस्ती लफ्ज़ याद आते ही हमको ज़ंजीर का शेरखान याद आता है, क्यों दीवार के एंग्री यंग मैन के लिए 786 का बिल्ला और रहीम चाचा ज़रूरी हैं, क्यों आज की दौर की लगभग हर फिल्म में अल्लाह, ख़ुदा, रब या उनकी रहमतों से जुड़े किसी गीत का होना लाज़मी है. (भले ही उसका कथानक से कोई लेना – देना न हो)
वो नैरेटिव सेट करने में और आक्रांता को शोषित बताने में सिद्धहस्त हैं. फिर माध्यम साहित्य हो या फ़िल्म उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता, आज उन्होंने फिल्मों के ज़रिए ये बात भी लगभग स्थापित कर दी है कि दैहिक स्वतंत्रता ही नारी स्वतंत्रता का केंद्र बिंदु है.
वीरे दी वेडिंग, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, हेट स्टोरी और इन जैसी तमाम फिल्मों की सफलता, इस तथ्य को साबित करने के लिए काफी हैं कि हम अपने नैतिक और चारित्रिक पतन के रास्ते पर बहुत दूर निकल आए हैं.
और अगर आप इसका विरोध करते हैं तो आप मॉरल पुलिसिंग के पक्षधर और भगवाई गुंडे हैं. ऐसा नहीं है कि इन आरोपों के डर की से हमने इन चीजों का विरोध नहीं किया, इन फिल्मों के रिलीज़ होने से पहले सोशल मीडिया पर बहुत तीखी प्रतिक्रियाएं दी गईं… इन फिल्मों का सामूहिक बहिष्कार करने की बात भी कही की गई.. पर अंततः हुआ क्या?
फिल्में आशातीत रूप से सफल रहीं और हम देखते रह गए. उल्टे इन फिल्मों की सफलता में इस तरह की प्रतिक्रियाओं का बड़ा योगदान रहा. कुछ वर्षों पहले जब मैं ‘एडवटाइज़िंग सेल्स प्रमोशन, सेल्स मैनजमेंट’ में ऑनर्स कर रहा था, तब हमें पढ़ाया जाता था कि प्रचार कभी सकारात्मक या नकारात्मक नहीं होता, वो सिर्फ प्रचार होता है. नकारात्मक प्रचार भी सफल प्रचार का ही एक माध्यम है.
मुझे याद है लगभग दो दशक या उससे पहले एक विज्ञापन आया करता था ओनिडा टीवी का, जिसमें एक शैतान का प्रतिरूप दिखाया जाता था जिसके सिर पर दो सींग होते थे… टैग लाइन थी “neighbours envy, owners pride” ये विज्ञापन कलात्मक रूप से एक घटिया विज्ञापन था, पर उस शैतान की छवि के कारण मुझे आज भी याद है और शायद आप में से भी बहुतों को याद होगा.
नकारात्मक प्रचार को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के खेल में वामपंथियों का कोई मुकाबला नहीं है. वो शातिर हैं और परिवर्तनशील भी, वो देश, काल और परिस्थिति को देखकर अपनी रणनीति बदलने में गुरेज़ नहीं खाते और यही उनकी सफलता का राज़ है.
मैं पिछले डेढ़ दशक से रंगमंच पर अभिनेता और पटकथा लेखक के रूप में सक्रिय हूँ, इसलिए मैं जानता हूँ कि किसी व्यक्ति के मानस पटल पर किसी विचार को आरोपित करने के लिए दृश्य माध्यम कितने कारगर हथियार होते हैं.
मैं जानता हूँ कि किस तरह कम्युनिस्टों ने इप्टा जैसी संस्था को अपने मुखपत्र की तरह इस्तेमाल किया है, मैं जानता हूँ किस तरह हर साल, लाल क्रांति के जुमलों से लबरेज़ रंगकर्मियों की टोली, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकलती है और देश भर में फैल जाती है,
मैं जानता हूँ कि किस तरह आज रंगकर्म करने लिए वामपंथी होना पहली प्राथमिकता बना दिया गया है. और मैं ये भी जानता हूँ किस तरह मुझ जैसे दक्षिणपंथी (तथाकथित संघी) विचारधारा के लोगों के लिए रंगकर्म में टिके रहना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है.
फ़िल्म व्यवसाय में भी कमोबेश यही स्थिति है, अगर आप ओसामा, दाऊद, गजनवी, ख़िलजी जैसे किरदारों का महिमा मंडन नहीं कर सकते तो आप किसी काम के निर्देशक नहीं हैं. आज स्वयं घोषित खलनायक संजय दत्त पर भी फ़िल्म बन रही है, और उसकी सफलता की गारण्टी भी आँख मूंद कर दी जा सकती है.
खैर… फिल्मकार किस विषय पर फ़िल्म बनाए ये उसका विशेषाधिकार हो सकता है पर तुर्रा ये की दृश्यों के फिल्मांकन में निर्देशक द्वारा यथार्थवाद की दुहाई भी दी जाएगी, और किसी दृश्य से अगर बहुसंख्यक हिन्दू समाज को दिक्कत हो तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना जाएगा.
फिलहाल गनीमत यही है कि ये यथार्थ दर्शन अभी केवल प्रणय दृश्यों में तक ही सीमित है, पर हो सकता है हम भविष्य की फिल्मों में हत्या के दृश्य में सचमुच हत्या और बलात्कार के दृश्य में असली बलात्कार देखें…. और ये दिन ज़्यादा दूर नहीं है क्योंकि दुनिया के समस्त याथर्थवादी फिल्मकार हमारे देश में ही जन्म लेते हैं जो किसी काल्पनिक दृश्य को भी अपनी सृजनात्मकता से सजीव बना देने का कौशल बाख़ूबी जानते हैं.
बाकी वैश्विक प्रचार के लिए सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देकर विजेता बनने वाली विश्वसुंदरियाँ तो हैं हीं, जो नाच-नाच कर दुनिया को बताएंगी कि भारतीय फिल्मों में कहानी के नाम पर सिर्फ नारी देह होती है…
कुल जमा बात ये है कि हम सिर्फ वही मानने को विवश हैं जो हमें दिखाया जा रहा है. हमारी दर्शन, चिंतन और मनन की सनातन मेधा को लगाम में कसकर नियंत्रित कर लिया गया है. हमारी आंखों पर प्रगतिशीलता की पट्टी है और मुँह में बौद्धिकता का लॉलीपॉप…
अब आप चाहें तो प्रगतिवादिता की लार में घुल रही मिठास को चूस कर अपने नैतिक और चारित्रिक पतन की क्रमिक प्रक्रिया को भुलाए रख सकते हैं या खम ठोंक कर कह सकते हैं…
हम लड़कर लेंगे आज़ादी…. वामपंथ से आज़ादी…
https://www.youtube.com/watch?v=L09cL234fSA