पिछले शनिवार को प्रधानमंत्री सिंगापुर में थे.
वहाँ की प्राचीनतम मस्जिद एवं मंदिर में गए… सोशल मीडिया पर प्रचारित हुई केवल चूलिया मस्जिद की तस्वीर… जहाँ मस्जिद की तरफ से उनका सम्मान किया गया था.
मरियम्मन मंदिर में उन्होंने पूजा भी की पर उसकी तस्वीर कहीं नहीं दिखी… हमारे निष्पक्ष पत्रकारों के पास भी नहीं.
सिंगापुर में प्रधानमंत्री ने दो और काम किए…
1948 में गाँधी की अस्थियों के कुछ अंश सिंगापुर के क्लिफर्ड पियर में विसर्जित किए गए थे. उस स्थान पर एक स्मृति पट्टिका का अनावरण किया…
गाँधी को अपनी निजी संपत्ति मानने वाली काँग्रेस ने तो इसकी चर्चा भी नहीं की.
वहाँ के चांगी नेवल बेस पर एक भारतीय युद्धपोत आईएनएस सतपुड़ा तैनात है… उसके नौसैनिकों से भी प्रधानमंत्री मिले… सैनिकों के हित के योद्धा के कान पर जूं भी न रेंगी.
चार में से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण काम विरोधियों को मस्जिद में किया गया सम्मान लगा… क्योंकि इससे समर्थकों की भावना भड़क सकती थी… जो हुआ भी…
नेगेटिव खबर ज्यादा लोकप्रिय होती हैं शायद इसलिए न्यूज़ चैनलों पर नेगेटिव खबरें ही दिखाने की परंपरा शुरू हुई.
पिछले वर्ष इन्ही दिनों सोशल मीडिया पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की खबर जोर-शोर से चल रही थी.
अति उत्साही लोगों ने मोदी सरकार को जम कर कोसा… इनके शासन काल में हिंदुओं को जबरदस्ती भूखा रहना पड़ रहा है…
किसी पत्रकार ने हमेशा की तरह एक अधूरी खबर चला दी… और सोशल मीडिया वीर लगे उछलने…
न्यूज़ आयी थी- रमजान के कारण AMU के हॉस्टल में ब्रेकफास्ट और लंच गैर मुस्लिम छात्रों को नहीं मिलेगा
अब इस न्यूज़ का दूसरा पक्ष देखिए –
एएमयू में 1920 से रमज़ान के महीने में लंच नहीं देने के नियम का पालन हो रहा था…
पिछले वर्ष गैर मुस्लिम छात्रों ने इसका विरोध किया. ट्वीटर पर मानव संसाधन मंत्री से शिकायत की… कुछ हिन्दू संगठनों ने सड़क पर उतर कर भी विरोध प्रदर्शन किया.
इन सबके परिणामस्वरूप एएमयू प्रशासन ने रोजा नहीं रखने वाले छात्रों को… उनकी माँग पर ब्रेकफास्ट और लंच देने का निर्णय लेते हुए अपनी 97 साल की परंपरा को तोड़ दिया.
जब कुछ सकारात्मक होता है तब वो समाचार नहीं बनता है.
जितने लोगों ने खाना नहीं मिलने का रोना रोया था, उनमें से किसी एक ने भी खाना दिए जाने के निर्णय का स्वागत नहीं किया…
क्यों जी?
जब गलत करने पर निंदा कर सकते हैं तो अच्छा करने पर प्रशंसा करने में क्या परेशानी है?
हर काम का ठीकरा मोदी सरकार के सर पर फोड़ने वाले… लगभग एक शताब्दी पुरानी इस परंपरा को तोड़ने का निर्णय होने का श्रेय मोदी सरकार को क्यों नहीं दिया?
विरोधियों के पास समर्थकों से ज्यादा समझदारी और होशियारी है… आपके तबले से अपनी पसँद की ताल कैसे बजवाई जाए… उनको पता है और आप खुद को बहुत उच्च श्रेणी का तबलची समझने के मद में… उनकी धुन बजाए जा रहे हैं.
तबला बजाइए, पर पहले आश्वस्त हो लीजिए कि राग-लय-ताल…. सब आपका अपना ही है या ‘कैराना’ घराने का
आपकी धुन का असर आप पर ही भारी पड़ेगा तब्बसुम बेगम पर नहीं… सबक मृगांका को नहीं, आपको मिला है.
आपके विरोध के परिणामस्वरूप उत्पन्न निष्क्रियता कैसा दृश्य दिखाएगी… उसकी झलक है कैराना और नूरपुर…
अभी भी समय है संभल गए तो ठीक, नहीं तो आपके सेकुलर प्रधानमंत्री को रोकने के लिए, साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने वाली शक्तियाँ संगठित तो हो ही चुकी हैं.