भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील क्षेत्री द्वारा हाथ जोड़कर की जा रही अपील की यह फोटो देखकर मन खिन्न हो गया.
मीडिया और सोशल मीडिया पर सुनील क्षेत्री ने हाथ जोड़कर यह अपील की है कि भले हमें गालियां दीजिये, हमे कोसिये, हम पर चीखिये पर 4 जून को मुम्बई में भरतीय फुटबॉल टीम का मैच देखने जरूर आइए.
सुनील क्षेत्री को विवश होकर यह भावुक अपील इसलिए करनी पड़ी क्योंकि चाइनीज़ ताइपेह को भारतीय फुटबॉल टीम ने मुम्बई में जब 5-0 के अन्तर से हराकर मैच जीता उस समय मैदान में मात्र ढाई हजार दर्शक मौजूद थे.
उल्लेख जरूरी है कि सुनील क्षेत्री उन महान भारतीय फुटबॉल खिलाड़ियों में से एक हैं जिनकी लगन परिश्रम और प्रतिभा के बदौलत भारतीय फुटबॉल टीम ने पिछले 3 वर्षों में लम्बी छलांग लगाई है.
मार्च 2015 में FIFA की रेटिंग सूची में जो भारतीय फुटबाल टीम 171वें स्थान पर थी वो आज 97वें स्थान पर पहुंच चुकी है.
यहां यह भी समझ लीजिए कि क्रिकेट और फुटबॉल में प्रतिस्पर्धा का कोई औचित्य नहीं है. क्योंकि क्रिकेट दुनिया के केवल 15-20 देशों में खेला जाता है जबकि दुनिया में शायद 10-15 देश ही ऐसे होंगे जहां फुटबॉल नहीं खेला जाता होगा. स्वयं FIFA की रैंकिंग में शामिल देशों की संख्या ही इसकी पुष्टि कर देती है.
अतः आज दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज/ गेंदबाज का तमगा टांगकर घूमने वाले भारतीय क्रिकेट सितारों और 171वें स्थान से 97वें स्थान पर पहुंचाने वाले भारतीय फुटबॉल टीम के सुनील क्षेत्री की अंतरराष्ट्रीय कसौटियों की तुलना स्वयं कर लीजिये.
हतप्रभ और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि फुटबॉल को पूरी दुनिया में निर्विवाद रूप से गरीबों का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल माना जाता है. दुनिया के किसी भी प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी की पृष्ठभूमि पता करिये तो वो अपने समाज के सबसे गरीब तबके से निकला हुआ व्यक्ति ही होता है.
लेकिन गरीबों की इतनी बड़ी संख्या वाले देश में फुटबॉल आजकल हाशिये पर चला गया है. 1956 में ओलिम्पिक का फुटबॉल सेमीफाइनल खेलने वाली, तथा 1962 में फुटबॉल का एशियाई चेम्पियन बनने वाली फुटबॉल टीम आज लावारिस हालत में है. क्रिकेट ने उसे अजगर की तरह निगल लिया है.
मेरे लखनऊ में ही तीन प्रसिद्ध फुटबॉल ग्राउण्ड हुआ करते थे. आज वहां से फुटबॉल के गोल पोस्ट उखाड़कर फेंके जा चुके हैं और फुटबॉल मैदानों की छाती पर क्रिकेट के स्टम्प गड़े नज़र आते हैं.
शूटिंग, बैडमिंटन, टेनिस, टेबिल टेनिस, गोल्फ़ सरीखे कुछ खेल क्रिकेट के कहर के बावजूद शायद इसलिए बचे हुए हैं क्योंकि बड़ी संख्या में उनसे समाज का सम्पन्न वर्ग जुड़ा हुआ है. लेकिन गरीबों का खेल फुटबॉल इतना किस्मत वाला नहीं है. उसे भी संरक्षण चाहिए.
अपने गांव, अपने पास की गरीब बस्तियों में 5-6 सौ रुपये का एक फुटबॉल बच्चों को गिफ्ट कर के इसकी शुरुआत तो की ही जा सकती है.