आपने कहा आउटलुक मैगज़ीन ने हिंदुओं को बांट दिया कट्टर हिंदू और उदार या लिबरल हिंदू में.
ध्यान से सोचिये ये शायद आपने पहली बार सुना हो पर ये लिबरल या उदार या धिम्मी या कायर हिंदू क्या पहले नहीं थे?
मुगलकाल में हिंदू दोयम दर्जे का ही तो था जो जज़िया देता था. जिनके सामने पचास हज़ार मंदिरों को तोड़ दिया गया, रामलला का मंदिर तोड़ा, बाबरी मस्जिद बना ली, कृष्ण मंदिर, काशी विश्वनाथ, सोमनाथ, भोजशाला…
पता नहीं कितनों के इष्टों को अपवित्र किया गया, उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई गई, पता नहीं क्या क्या अत्याचार किये गये, क्या थे वो?
मानसिंह जब अकबर के कहने पर राजपूतों से लड़ने जाता था, वो भी धिम्मी ही था. नोआखाली के समय पूरी कांग्रेस का व्यवहार धिम्मी जैसा ही था.
बँटवारे के समय हिन्दू नेतृत्व रहने के बावजूद, हिंदुओं को बहुत ही ज्यादा नुक़सान हुआ, तो उसके लिए ज़िम्मेदार गांधी और नेहरू, क्या धिम्मी नहीं?
[इस लेख को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए कृपया पहले यह लेख अवश्य पढ़िए – ऐ कट्टर हिंदुओं… ऐ कड़क राष्ट्रवादियों…]
बँटवारे के बाद भी ये धिम्मीपना नहीं गया बस इसका रूप बदल गया, ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के रूप मे, पैकेजिंग बदल गई अंदर की चीज़ वही रही.
वरना हमारे ‘बापू’ और ‘चचा’ दिल्ली की जनवरी की ठंड में महिलाओं और बच्चों को जामा मस्जिद के बाहर न निकालते. चाचा नेहरू कॉमन सिविल कोड नहीं लाये, गोवध निषेध क़ानून नहीं लाये, मुसलमानों को बँटवारे के बावजूद स्पेशल स्टेटस दे दिया उदार या लिबरल हिंदुओं ने.
कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में किसलिये शरणार्थी बनना पड़ता है. कारसेवकों पर गोलियाँ चलाने वाले मुलायम को वोट दिया, लिबरल हिंदुओं ने. आज भी पश्चिम बंगाल में मुहर्रम के लिये दुर्गा पूजा रोक दी जाती है, ममता बानो उदार है या लिबरल, पर उसे वोट देने वाले भी कम धिम्मी नहीं हैं.
आपने बिलकुल सही कहा, लिबरल हिन्दू एक तरह से धिम्मी ही है ‘जिन्हें स्वयं को बिना उपसर्ग-प्रत्यय लगाये हिंदू कहने में शर्म आती थी, जिन्हें “संघ परिवार” को गाली देने के लिये एक शब्द की तलाश थी’.
शायद आपने ये शब्द पहली बार सुना हो लेकिन मानसिकता तो पहले से ही थी, शायद महसूस न किया हो. लेकिन उसी संघ की बरसों की तपस्या और हज़ारों की शहादत के बाद, एक प्रचारक प्रधानमंत्री बना है.
उसके कुछ समय बाद, कट्टर हिंदुओं में भी दो फाड़ हो गये, एक वर्ग इतनी जल्दी ही इतना असंतुष्ट हो गया कि बिना विकल्प के ही उसे हटाने की बात करने लगा. ये तथाकथित राष्ट्रवादी और ‘प्रचंड हिन्दू’ संघ के हिमायती बनकर, संघ की सरकार बीजेपी से ही नफरत करते हैं और उसे हटाने की बात करते हैं.
कट्टर हिंदू और कड़क राष्ट्रवादी वो हैं जिनका हिंदुत्व और राष्ट्रवाद 2014 के आसपास जागा है और मोदी को सबक़ सिखाने के बाद और बीजेपी को हटाकर, 2019 के बाद शीतनिद्रा में सो जायेंगे.
संघ पितृत्व की भूमिका में है और बीजेपी उसकी राजनैतिक उत्तराधिकारी, माना कि बेटा पिता की उम्मीदें पर उतना खरा नहीं उतर पा रहा है पर उसकी भी अपनी मजबूरियाँ है. इसलिये संघ और बीजेपी को आमने सामने खड़ा करने की ऐतिहासिक भूल भी न करें. ऐसा संघ के किसी प्रवक्ता को बोलते भी नहीं सुना है.
और अगर ऐसी कोई बात हो तो बेहतर यही होगा कि ये बात आदरणीय मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार जैसे ज्ञानी अपने श्रीमुख से कह दें कि बीजेपी को वोट नहीं करना तो अज्ञानी आम हिंदू को समझने और मानने मे आसानी हो जायेगी .
वो क्या है कि दिल्ली का ताज बहुत शक्तिशाली और बेरहम है, ये चाहे तो हिन्दुओं को आतंकवादी बना दे, बलात्कारी बना दे, रामलला को तंबू मे सज़ा दे, हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दे.
इसने तो हिन्दू संगठक स्वातन्त्रयवीर सावरकर जैसे युगपुरूष महानायक दूरदृष्टा को कभी इतिहास में उचित जगह नहीं दी, उनके महान योगदान को खा गया. और तो और जब कांग्रेस उन्हे बेशर्मी से कायर और देशद्रोही कहती है तो हम और आप जैसे हिन्दू दाँत पीसने और ख़ून के घूँट पीने के अलावा कुछ नहीं कर पाते. उन्होंने पूरी पीढ़ी/ जेनेरेशन की सोच इसी तरह से कलुषित कर दी और ये सोच बदलने में थोड़ा समय लगेगा.
कभी सोचा है कि बँटवारे के बाद भी ये धिम्मी मानसिकता गई क्यों नहीं? क्योंकि दिल्ली के तख़्त पर बैठने वाला हर इंसान धिम्मी था, जागृत हिन्दू नहीं, कभी हिन्दू होने पर गर्वित नहीं हुआ और ये मानसिकता ऊपर से नीचे प्रवाहित होती है तो ये बात नीचे भी स्थापित हो गई.
अगर पटेल प्रधानमंत्री होते तो इस मानसिकता को बढ़ावा नहीं मिलता. इसलिये इस दिल्ली के तख़्त का महत्व बहुत ज्यादा है, इसलिये ज़रूरी है कि कोई हिन्दुवादी इस तख़्त पर बैठे और कम से कम धिम्मी न ही बैठे. हर पद की गरिमा होती है और प्रोटोकॉल होता है, उसे मानना ही पड़ेगा.
आप बहुत ज्ञानी हैं शायद इसलिये आप नेहरू में भी हिंदुत्व ढूँढ लेते हैं जिन्होने कभी खुद को हिंदू आइडेंटिफाई ही नहीं किया. आप बतायें कि हम अज्ञानी क़िसमें हिंदुत्व ढूँढे, ममता में, मुलायम या लालू में, मायावती में या माता रोम में!
हिंदुओं की राजनैतिक समझ पर तरस आता है, जिन्हें मालूम नहीं है कि उनका भला बुरा क्या है! मुस्लिमों को मालूम है उनके लिये क्या बेहतर है, ईसाईयो को मालूम है उनके लिये क्या बेहतर है, उन्हे अपने दोस्त और दुश्मन मालूम है, उनमें राजनैतिक सलाहियत है, इसलिये उन्हे हमेशा अपनी संख्या से बेहतर भागीदारी मिली.
चलिये मान लेते है कि मोदी ने हिन्दुत्व के लिये कुछ नहीं किया पर क्यों मुस्लिम जी जान से नफरत करते है मोदी से? ऐसा क्या हो गया कि वैटिकन तिलमिला गया? इसलिये अपनी नहीं तो उनकी सलाहियत पर यक़ीन कर लीजिये.
कांग्रेस सिर्फ एक पार्टी नहीं इको सिस्टम है और इको सिस्टम एक टर्म में नहीं बनते तो एक टर्म में चले कैसे जायेंगे. कांग्रेस एक पूरा भ्रष्ट तंत्र है कांग्रेस + वामपंथी + मीडिया + एनजीओ + बुद्धिजीवी + नौकरशाह + ज्यूडीशियरी+ एकेडमिया + ईसाई + इस्लामी + अम्बेडकरवादी + इलुमिनाती + पाकिस्तान.
इन सब को जल्दी बदलना सम्भव नहीं है. इसे हिंदुओं की राजनैतिक अधीरता व अज्ञानता से गँवा नहीं देना है, इसलिये थोडा धैर्य रखिये.
आखिर में, हम बहुत सारी चीज़ों मे विशेषण/ qualifiers लगाते हैं जो उसकी ख़ूबसूरती बढ़ा देते हैं और कल्पना/visualise करने में आसानी होती है. जैसे नीलगगन, सुरमई शाम, सुनहरी धूप, सिन्दूरी सूरज, दूधिया चाँदनी, हरे पेड़-पौधे, सफ़ेद बर्फ़ की चादर ओढ़े वादियाँ, और हाँ, गोरी राधा, श्यामल कृष्ण…
पश्चिम की सबसे पॉपुलर कहानी Snow-white है. मुहावरे भी as white as snow जिसका मतलब सिर्फ दूधिया सफ़ेद भी होता है और बीमारी का पीलापन भी. इत्र भी कई सारे होते हैं, गुलाब, केवड़ा, चन्दन इत्र, भीनी सी ख़ुशबूदार वाला इत्र, तेज़ इत्र इत्यादि. माँसाहारी शेर उसकी खुराक बताने के लिये कम और ख़तरनाक बताने के लिये ज्यादा बोलते हैं, पर आजकल उसे सर्कस वाला बना दिया है, हिन्दू की तरह उनकी शिकारी प्रवृत्ति खत्म कर के… उन्हें उनका पराक्रम याद दिलाने की ज़रूरत है.