कैराना की हार के सच से मुंह चुरा रहे हैं राजनीतिक और न्यूज़चैनली मठाधीश

ना कोई जाट मुस्लिम एकता हुई. ना कोई दलित लामबंदी हुई. ना ही कोई किसानों नौजवानो की नाराजगी थी.

न्यूज़ चैनलों पर राजनीति और मीडिया के प्रायोजित मठाधीश अपने ऐसे डायलॉगों से हमारी आपकी आंखों में धूल झोंक रहे हैं.

कैराना उपचुनाव के परिणामों के मूल कारणों से मुंह चुरा रहे न्यूज़चैनली/ मीडियाई मठाधीश दरअसल यह स्वीकार करने का साहस नहीं कर पा रहे हैं कि कैराना में धुर साम्प्रदायिक आधार पर प्रचण्ड मुस्लिम ध्रुवीकरण हुआ.

ध्यान रहे कि उत्तरप्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 16 सीटें ऐसी हैं जिनमें मुस्लिम मतदाता 20 से 50 प्रतिशत तक हैं. 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं के आंकड़े के साथ कैराना इन्हीं 16 लोकसभा सीटों की सूची में शामिल है.

अब जरा इन तथ्यों और आंकड़ों को पूरा और ध्यान से पढ़िए…

कैराना लोकसभा सीट पर मतदाताओं की कुल संख्या लगभग 16 लाख 9628 मतदाता हैं. इसमें मुस्लिम मतदातों की संख्या लगभग 35%, अर्थात कैराना में लगभग 5 लाख 65 हज़ार मुस्लिम मतदाता हैं.

इस उपचुनाव में कैराना में लगभग 56% मतदान हुआ था. अर्थात लगभग 9 लाख 15-20 हज़ार मत पड़े थे.

यह जग जाहिर तथ्य है कि कैराना लोकसभा सीट पर मुस्लिम मतदाताओं का मतदान प्रतिशत सामान्य मतदान से अधिक प्रतिशत में हुआ था.

अतः बहुत कंजूसी से यदि यह मान लीजिए कि मुस्लिम मतदाताओं का मतदान कुल मतदान से केवल 5% अधिक हुआ तो कैराना में कुल मुस्लिम वोट लगभग 3 लाख 40 हज़ार पड़ा. जबकि वास्तविकता संख्या इससे अधिक ही होगी.

दिल्ली से लेकर देवबंद तक जारी हुए ‘मोदी-योगी हराओ’ वाले फतवों और भाजपा बनाम सब की चुनावी स्थिति के बाद यह 3 लाख 40 हज़ार मुस्लिम वोट भाजपा के पक्ष में गए होंगे, ऐसा मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष राजनीतिक धरातल की कठोर और कटु सच्चाई से पूरी तरह अनभिज्ञ कोई राजनीतिक अनपढ़/ गंवार ही निकाल सकता है.

मेरा अपना मानना है कि इनमें से ज्यादा से ज्यादा 5 से 10 हज़ार मत ही भाजपा को मिले होंगे. सम्भव यह भी है कि वो भी नहीं मिले होंगे.

2014 में कैराना में 15 लाख 31 हज़ार 642 मतदाता थे. उस समय सपा, बसपा और RLD-कांग्रेस गठबन्धन अलग अलग चुनाव लड़े थे. उनके तीनों प्रत्याशियों को कुल मिलाकर 5 लाख 32 हज़ार 201 मत मिले थे.

इस बार इन सारे दलों के गठबन्धन की संयुक्त प्रत्याशी तबस्सुम हसन को 4 लाख 81 हज़ार 182 मत मिले हैं. इनमें अर्थात गठबन्धन प्रत्याशी को 2014 की तुलना में लगभग 51 हज़ार मत कम मिले हैं.

यहां यह ध्यान रखिये कि 2014 में 73.08% मतदान हुआ था. जबकि इस उपचुनाव में 56% मतदान हुआ है. अर्थात 2014 की तुलना में लगभग 2 लाख मत कम पड़े हैं.

यहां यह भी ध्यान रखिये कि 2014 में तीनों दलों के प्रत्याशी अलग अलग थे. उन तीनों दलों के प्रत्याशियों और उनकी कोर टीम के सदस्यों के व्यक्तिगत प्रभाव वाले मत भी 5 लाख 32 हज़ार 201 मतों में शामिल थे.

राजनीति के रसायन को समझने वाले यह भलीभांति जानते हैं कि किसी भी दल के प्रत्याशी के व्यक्तिगत सम्बन्धों/ सम्पर्कों वाले मतों का दलीय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता.

उस समय तीनों दलों को मिले वोटों में कम से कम 5-6% वोट उन प्रत्याशियों का व्यक्तिगत वोट था.

अतः आंकड़ों की उपरोक्त सच्चाई यह तो बता ही रही है कि 2014 में गठबन्धन को जितने मत मिले थे उससे मात्र 20-25 हज़ार कम मत उसे इस बार मिले हैं.

यानी कि मोदी विरोधी राजनीतिक ताकतों का प्रदर्शन जितना सम्भव हो सकता था उतना ही हुआ. इसके बावजूद भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह मात्र 44 हज़ार 618 मतों से हारी हैं. उन्हें 4 लाख 36 हज़ार 564 मत मिले हैं.

भाजपा को 2014 की तुलना में लगभग 1 लाख 30 हज़ार मत कम मिले हैं, क्योंकि 2014 में भाजपा को 5 लाख 65 हज़ार 909 मत मिले थे. लेकिन यह 1 लाख 30 हज़ार मत विपक्षी गठबन्धन के खाते में नहीं गए. इसके बजाय भाजपा का यह वोटर मतदान के लिए नहीं निकला.

इसके कई कारण हैं. पहला तो यही है कि इस उपचुनाव का देश या प्रदेश की सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना था. उपचुनाव में भाजपा का मतदाता उदासीन रहता है.

अनुमान लगाइए कि जिस समय 2019 में देश का प्रधानमंत्री, सरकार चुनने के लिए जब वोट डाले जाएंगे तब मृगांका सिंह की 44 हज़ार मतों से हार का अन्तर किस तरह निष्प्रभावी होगा.

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्तरप्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 16 सीटें ऐसी हैं जिनमें मुस्लिम मतदाता 20 से 50 प्रतिशत तक हैं. 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं के आंकड़ें के साथ कैराना इन्हीं 16 लोकसभा सीटों की सूची में शामिल है.

अतः ऐसे कैराना लोकसभा क्षेत्र में गठबन्धन की पूरी ताकत झोंकने के बाद केवल 44 हज़ार मतों की हार एक सुखद सन्देश है कि फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की साख बरकरार है और 2019 की कसौटी के लिए पूरी तरह तैयार है.

उपरोक्त तर्कों के अलावा एक और कारण है कैराना की हार का. यदि वह कारण नहीं होता तो भाजपा यह उपचुनाव भी जीतती. लेख लंबा हो गया है. इसलिए वह कारण कल लिखूंगा.

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