फ्रेंच, डच, पुर्तगाली और अंग्रेज जब भारत आये तो ज़ाहिर है अपने साथ वो अपनी ‘चौथी सेना’ को भी लेकर आये.
इस चौथी सेना ने अकबर के काल से ही अपने मत-विस्तार के काम को अंजाम देना शुरू कर दिया. मुग़ल सम्राट अकबर को एक आर्मेनियाई कन्या बतौर पत्नी तोहफे में दी गई और ज़ाहिरन उसकी खुशी के लिये अकबर ने आगरे में एक चर्च बनवाया.
मिशन को आर्मेनिया की उस ईसाई कन्या की वजह से शासन का वरदहस्त मिला और कुछ ही महीनों के अंदर वहां मसीही मत को मानने वालों की संख्या ठीक-ठाक हो गई.
इसके बाद उन्होंने भारत में बाकी जगह अपने लिये रास्ते तलाशने शुरू किये और सबसे बड़ा शिकार बना तब का सबसे प्रबुद्ध राज्य ‘बंगाल’.
यहाँ के कई नामी-गिरामी लोग ईसाई बने और जो ईसाई न भी बने वो मसीही मत, बाईबल और मसीह ईसा के चाहने वाले बन गये और न्यू-टेस्टामेंट की उक्तियाँ उन बड़े घरों में सुनी-सुनाई जाने लगी. मसीहियत के मुरीदों में राजा राममोहन राय का नाम सबसे मशहूर है.
इसके बाद ‘चौथी सेना’ ने अपना रुख किया वन और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच और उनमें अपने लिये गुंजाइशें तलाशनी शुरू कर दी और अच्छी-खासी सफलता भी उन्हें मिली.
उनके बीच मिशन के घुसपैठ से पहले वो वनवासी और पहाड़ी लोग भी स्वाधीनता प्रेमी हुआ करते थे जो मत परिवर्तन के बाद नहीं रह गये.
इन सबसे जो मशहूर शख्स सबसे दु:खी थे उनमें महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, बी. एस. मुंजे, दोनों सावरकर बंधु, तिलक और डॉक्टर हेडगेवार.
एक नाम है वो आपको चौंका देगा, पर ये नाम था गाँधी का, जो धर्मान्तरण के खेल से इतने आहत हो गये थे कि उन्होंने स्वदेशी के अपने नारे में ये भी जोड़ दिया था कि अब धर्म भी स्वदेशी चाहिए.
देश आज़ाद हुआ तो गाँधी समेत सबका सपना था कि अब और कुछ हो न हो धर्मान्तरण पर रोक लगे और अगर रोक न लग सका तो कम से कम इसपर नियंत्रण अवश्य हो.
चतुर अंग्रेज़ इस चीज़ को भांप चुके थे और सारे मिशनरी अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर जहाज़ में बैठने ही जा रहे थे कि पंडित नेहरु का सेकुलरिज्म जाग गया.
एक तरह से उन्होंने वापस जाते मिशनरियों को हाथ से पकड़ कर देश में बुला लिया यानि कानूनी प्रावधान इतने ढीले करवा दिये कि उनके लिये धर्मान्तरण करवा पाना बड़ा ही सहज हो गया.

जहाज से लौटने वालों में एक नाम ए. ज़ेड. फिज़ो (Angami Zapu Phizo) का भी था जिसे चर्च ने नागालैंड और उसके जरिये से पूर्वोत्तर में तैनात किया था. ये केवल लौटा ही नहीं बल्कि इसने लौटते ही नागालैंड की पूरी डेमोग्राफी ही बदलने की शुरुआत कर दी.
इस शख्स ने वहां ‘नागा नेशनल काउंसिल’ नाम से एक संगठन की स्थापना की और ‘ग्रेटर नागालैंड’ नाम से एक अलग ईसाई देश बनाने की घोषणा कर दी.
सरकार झुके इसलिए दबाव बनाने के लिए इस संगठन ने वहां सशस्त्र आन्दोलन शुरू कर दिया और नागालैंड की स्वतंत्रता की आवाजें वहां के हर हिस्से में सुनाई देने लगी.
करीब एक दशक में ही फिजो इतना प्रभावशाली हो गया कि सारे नागा लोग उसके इशारों पर नाचने लगे.
1956 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु का नागालैंड का दौरा हुआ, जिस मैदान में उनका भाषण होना था वो मैदान नेहरु जी के आगमन से काफी पहले ही खचाखच भर गया पर जैसे ही नेहरु भाषण देने के लिए खड़े हुए सारी भीड़ देश और नेहरु विरोधी नारे लगाते हुए मैदान से बाहर निकल गई.
देश के प्रधानमंत्री के इस अपमान से सारा भारत सन्न रह गया. सरकार दबाव में झुक गई और 1957 में नागालैंड को असम से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्ज़ा दे दिया गया.
गीता में कृष्ण का कहा शाश्वत सत्य कि “लोभी की क्षुधा कभी शांत नहीं होती” यहाँ भी सार्थक हुआ. असम से अलग होकर भी अलगाव की ये आंधी थमी नहीं, नतीजतन 1963 में सरकार ने नागालैंड को अलग राज्य का दर्ज़ा भी दे दिया और अलगाववादी भावनाओं का पोषण करते हुए 371 (A) के तहत कई विशेषाधिकार भी दे दिये.
पर फिर भी यहाँ की अलगाववादी गतिविधियाँ थमी नहीं क्योंकि फिजो तो एक मोहरा था उसके पीछे ब्रिटेन समेत पश्चिम के कई ईसाई राष्ट्रों का वरदहस्त था जिनकी मंशा नागालैंड को एशिया का प्रथम पूर्ण ईसाई राज्य का बनाने का था.

खुफिया अधिकारियों को जब ये बात पता चली कि माइकल स्कॉट नाम के एक ईसाई ब्रिटिश मिशनरी ने फिजो को तैयार किया था, तो सरकार ने स्कॉट को बजाये गिरफ्तार करने देश से बाहर निकाल दिया जिसके नतीजे और भी घातक सिद्ध घातक हुए.
स्कॉट ने लंदन जाकर फिजो को ब्रिटिश नागरिकता दिलवा दी और फिजो तथा स्कॉट वहां बैठकर नागालैंड को अलग राष्ट्र घोषित करवाने की अपनी मांग पर अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने लगे.
हेग, न्यूयार्क, रंगून, ढाका, पाकिस्तान, बैंकाक, चीन और नेपाल में इस संगठन के कार्यालय खुल गये. मिशनरियों से इन्हें पैसे मिलने लगे और चीन इन्हें हथियार देने लगा.
1971 में नागा नेशनल काउंसिल में कुछ मतभेद हुए जिसके नतीजे में यहाँ एक गुट नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड (NSCN) नाम से बना और सबसे प्रभावी बन गया.
NSCN भी आगे जाकर दो भागों में बंट गया जिसमें एक गुट का नेता खापलांग बना और दूसरे गुट का नेता बना मुइवा. ये दोनों ही नागालैंड के नहीं है. खापलांग मूलतः बर्मा का रहने वाला है और मुइवा मणिपुर का. नागालैंड, मणिपुर और पूर्वोत्तर को नर्क बनाने के पीछे NSCN का सबसे बड़ा हाथ है.
NSCN को यू.एन.पी.ओ. यानि “प्रतिनिधित्व विहीन राष्ट्रों का संगठन” की सदस्यता मिली हुई है और यू.एन.पी.ओ. संयुक्त राष्ट्र संघ में दो बार नागालैंड को भारत से अलग कर स्वतंत्र देश घोषित की मांग भी उठा चुका है.
वहां की आबादी भारतीय पन्थावलंबी तो रही नहीं इसलिए हैरत नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का पक्ष कभी कमजोर हुआ तो नागालैंड भी ईस्ट-तिमोर की तरह अलग देश न बना दिया जाए.
ऐसा अगर न भी हुआ तो भी NSCN का पुष्टिकरण फिर से हमारे पूर्वोत्तर को अशांत बना देगा क्योंकि NSCN की ‘ग्रेटर नागालैंड’ की परिधि में असम, मणिपुर और अरुणाचल के भी कुछ जिले हैं.
मिशनरियों को वापस जाने से रोकना केवल नागालैंड के लिये ही संकट नहीं बना बल्कि उसकी ज़द में पूरा पूर्वोत्तर, उड़ीसा, छतीसगढ़ और झारखंड भी आ गया. शिलांग को तो ईसाई मिशनरियों ने पूर्वोत्तर के वेटिकन की तर्ज़ पर विकसित किया.
मिज़ोरम और नागालैंड का लगभग शत-प्रतिशत मतांतरण, मणिपुर और मेघालय में बड़े पैमाने पर मतांतरण के बाद इन्होंने अपना रुख किया अरुणाचल की ओर पर वहां मिशनरियों के लिये एक दिक्कत थी.
उस समय पी. के. थुंगन अरुणाचल के मुख्यमंत्री और श्री के. ए. ए. राजा वहां के उप-राज्यपाल थे. इन दोनों ने स्पष्ट ऐलान कर दिया था कि अरुणाचल की संस्कृति के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जायेगी और अरुणाचल सरकार ने उप-राज्यपाल के सहयोग से वहां ‘अरुणाचल प्रदेश इनडीजिनस फेथ बिल’ नाम से एक धर्मांतरण विरोधी कानून पास करवाया.
जैसे ही ये कानून पास हुआ मानो पूर्वोत्तर के राज्यों में भूचाल आ गया. शिलांग (जो उत्तर पूर्व में उस समय ईसाईकरण का केंद्र था) से लेकर मिज़ोरम और कोहिमा से लेकर इम्फाल तक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये.
वॉइस ऑफ़ अमेरिका, बीबीसी, स्पेन और ऑस्ट्रेलिया के समाचारपत्र अरुणाचल की ख़बरों से पट गये. भारत में भी जगह-जगह छद्म सेकुलर पार्टियाँ और मीडिया इस खबर को इस रूप में दिखाने लगी मानो अरुणाचल से अधिक असहिष्णुता कहीं है ही नहीं है.
परिणामतः अरुणाचल के लोग इस विश्वव्यापी विशाल ईसाई नेटवर्क का प्रसार देखकर हक्के-बक्के रह गये, उन्हें समझ ही नहीं आया कि ये वही मीडिया और वही लोग हैं जिन्होंने चीन हमले के दौरान भी अरुणाचल को ठीक से कवर नहीं किया था और आज धर्मांतरण विरोधी कानून पास होते ही इतने सक्रिय हो गये कि पूरी दुनिया में अरुणाचल को बदनाम कर दिया.
पर वहां के बहादुर मुख्यमंत्री जब क़ानून वापस लेने को तैयार नहीं हुये तो इन्होंने दूसरा तरीका अपनाया और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने स्कूल और अस्पताल खोले और उसे मतान्तरण का ज़जरिया बनाया.
इसके अलावा पूर्वोत्तर में आज तक जितनी भी समस्याएं जन्मी चाहे वो कार्बी-दिमासा संघर्ष हो या फिर गारो-राभा के बीच का झगड़ा या फिर मणिपुर और नागालैंड के बीच का तनाव या फिर इरोम शर्मिला का नाटक, सबके पीछे ये लोग ही रहे हैं.
नेहरु के सेकुलर मिजाज़ ने उत्तर-पूर्व और भारत के वनवासी बहुल राज्यों का बेड़ा-गर्क कर दिया.
पर पिक्चर अभी बाक़ी थी… इस रास्ते में मील का दूसरा पत्थर गाड़ा जाना अभी बाकी था.
जारी…