लाओत्से कहता है :
लोग अपने भोजन में रस लें.
अपनी पोशाक सुंदर बनाएं.
अपने घरों में संतुष्ट रहें.
अपने रीति – रिवाज का मजा लें.
लाओत्से यह कह रहा है, कर लो सब चीजें सरल; कुछ हर्जा नहीं है. भोजन में रस लो. न लेने में हर्जा है. क्योंकि अगर भोजन में रस न लिया तो वह जो रस लेने की वासना रह जाएगी, वह किसी और चीज में रस लेगी. और वह रस तुम्हें अप्राकृतिक बनाएगा. और वह रस तुम्हें विकृति में ले जाएगा.
स्वाभाविक रस लो; अस्वाभाविक रस के लिए बचने ही मत दो जगह. छोटी -छोटी चीजों में रस लो, उसका अर्थ है. स्नान करने में रस लो. वह भी अनुठा अनुभव है, अगर तुम मौजूद रहो. गिरती जल की धार, किसी जलप्रपात के लिए. बहती नदी में, बहती जल की धार, उसका शीतल स्पर्श.
अगर तुम मौजूद हो और रस लेने को तैयार हो तो छोटी – छोटी चीजें इतनी रसपूर्ण है कि कौन फिक्र करता है मोक्ष की? मोक्ष की फिक्र तो वे ही करते हैं जिनके जीवन में सब तरफ रस खो गया.
कौन चिंता करता है मंदिर – मस्जिदों की? अपने छोटे घर में संतुष्ट रहो; वही मंदिर है. संतोष मंदिर है. अपने छोटे से घर को मंदिर जैसा बना लो; संतुष्ट रहो. उसे बड़ा करने की जरूरत नहीं है. बड़े से तो वासना पैदा होगी. उस छोटे में संतोष भर देने की जरूरत है. तब आवश्यकता तृप्त हो जाएगी. कितना बड़ा घर चाहिए आदमी को? छोटा सा घर और संतोष, बहुत बड़ा घर हो जाता है. महलों में तुम पाओगे इतनी जगह नहीं है जितनी छोटे से घर में जगह होती है.
वासना जहां है, असंतोष जहां है, अतृप्ति जहां है, वहां सभी छोटा हो जाता है. छोटा सा घर महल हो सकता है — तृप्ति से जुड़ जाए. बड़े से बड़ा महल झोपड़े जैसा हो जाता है — अतृप्ति से जुड़ जाए. तो तुम क्या करोगे? महल चाहोगे कि छोटे से घर को तृप्ति से जोड़ लेना चाहोगे?
लाओत्से कहता है, ‘भोजन में रस लें. अपनी पोशाक सुंदर बनाएं.’ लाओत्से बड़ा नैसर्गिक है. यह बिलकुल स्वाभाविक है. मोर नाचता है, देखो उसके पंख! पक्षियों के रंग! तितलियों के रुप! प्रकृति बड़ी रंगीन है. आदमी उसी प्रकृति से आया है. थोड़ी रंगीन पोशाक एकदम जमती है. इतना स्वीकार है. जब पशु -पक्षी तक रंग से आनंदित होते हैं.
पुराने दिनों में आदमी सुंदर पोशाक पहनते थे, थोड़ा-बहुत आभूषण भी पहनते थे. शानदार दुनिया थी. फिर बात बदल गई. आदमी नहीं पहनते अब सुंदर पोशाक; औरतें पहनती हैं. यह अप्राकृतिक है. क्योंकि स्त्री तो अपने आप में सुंदर है. उसके लिए सुंदर पोशाक की जरूरत नहीं है.
प्रकृति में देखो. मोर कुछ पंख है; मादा मोर के पंख नहीं हैं. वह नर है जो पंख फैलाता है. जो कोयल गीत गाती है वह नर है. मादा कोयल के पास गीत नहीं है. उसका तो मादा होना ही काफी है. नर को थोड़ी जरूरत है; वह इतना सुंदर नहीं है.
इसलिए पुराने दिनों में लोग थोड़ा आभूषण पहनते, थोड़ी रंगीन पोशाक. कोई बड़ी मंहगी नहीं, रंगों का कोई बड़ा मूल्य थोड़े ही है. सस्ते रंग है, जगह -जगह मिल जाते हैं, सरलता से उपलब्ध है. और कोई हीरे-मोती थोड़े ही लगा लेने हैं, फूल भी लगाए जा सकते हैं. लकड़ी के टुकड़ों से भी आभूषण बन जाते हैं.
लाओत्से कहता है, ‘अपनी पोशाक सुंदर बनाएं.’ तुम्हारे साधु पुरुष इन छोटी – छोटी बातों में तुम्हें सुख लेने नहीं देते. तुम्हारे साधु पुरुष बड़े कठोर हैं. वे जीवन में रस लेने के दुश्मन है. लाओत्से कहता है, जो सहज है वह ठीक है. सहज यानी ठीक. यह बिलकुल सहज है.
मुर्गा देखो; कलगी है. मुर्गी बिना कलगी के है. क्या शाध से चलता है मुर्गा ! सारा जगत मात हे ! लोग सुंदर पोशाक पहने, शान से चले, गीत गाएं, नाचे, भोजन में रस ले. छोटा छप्पर हो, लेकिन संतोष का बड़ा छप्पर हो ! अपने रीति – रिवाज का मज़ा लें. इस चिंता में न पड़े कि कौन सी रीति ठीक है, कौन सा रिवाज़ गलत है. तुम्हें आनंद आता है तो बिलकुल ठीक है, होली मनाओ. इस फिक्र में मत पड़ो कि मनोवैज्ञानिक क्या कहते हैं. इस चिंता में पड़ने की ज़रूरत क्या है? ये मनोवैज्ञानिक से पूछने की आवश्यकता कहां है? और कहीं मनोवैज्ञानिक से पूछ कर कर कुछ निर्णय होगा?
मनोवैज्ञानिक कहेगा कि होली का मतलब है कि लोग दमित हैं, लोगों के भीतर दमन है, दमन को निकाल रहे हैं. उन्होंने होली का मज़ा भी खराब कर दिया. जब तुम किसी पर पिचकारी नहीं चला सकते, क्योंकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इसका मतलब तुम दमन निकाल रहो हो. तुम किसानों पर रंग नहीं फेंक सकते, गुलाल नहीं फेंक सकते हैं. मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कि तुम किसी पर पत्थर फेंकना चाहते थे, वह तुम नहीं फेंक पाए, यह बहाना है. तुम जबरदस्ती किसी के मुंह पर रंग पोत रहे हो, यह हिंसा है.
मनोवैज्ञानिक होली तक न करने देंगे; दीवाली पर दीये न जलाने देंगे. वे कोई न कोई मतलब निकाल लेंगे. मनोवैज्ञानिक का एक ही काम है : बैठे हुए मतलब निकालते रहें और चीजों का रहस्य खराब करते रहें. उनकी जिदंगी तो खराब हो ही गई; वे दूसरों की ज़िंदगी खराब कर रहे हैं.
लाओत्से कहता है, इसकी फिक्र मत करो कि रीति – रिवाज का क्या अर्थ हे. रीति – रिवाज मज़ा देता है, बस काफी है. मज़ा अर्थ है. होली भी मनाओ, दीवाली भी मनाओ. कभी दीये भी जलाओ, कभी रंग – गुलाल भी उड़ाओ.
लाओत्से यह कह रहा है, ज़िंदगी को सरल और नैसर्गिक रहने दो, उस पर बड़ी व्याख्याएं मत थोपो…
ताओ उपनिषद
परमात्मा को केवल
वे ही लोग खोजने निकलते हैं
जिनको परमात्मा ने खोजना शुरू कर दिया…
जो उसके द्वारा चुन ही लिये गये हैं
वे ही केवल उसे चुनते हैं…
जो किसी भांति उनके हृदय में आ ही गया है
वे ही उसकी प्रार्थना में तत्पर होते हैं…
तुम्हारे भीतर से वही उसको खोजता है
सारा खेल उसका है
तुम जहां भी इस खेल में कर्ता बन जाते हो
वहीं बाधा खड़ी हो जाती है, वहीं दरवाजे बंद हो जाते हैं…
– ओशो