लघु से विराट बनने की यात्रा में ‘सुनील दत्त’ कई पड़ावों से गुज़रे और हर एक मोड़ पर अपने व्यक्तित्व में उस अनुभव के अहसास को आत्मसात कर लिया जिसने उनके मुखमंडल पर तेज का ऐसा आभामंडल बना दिया कि सादगी व सरलता के बीच उसमें अहंकार का लेश मात्र भी शामिल न था.
इसलिये तो सिर्फ रजत पर्दे पर ही नहीं वास्तविक जीवन में भी किरदार बदलते रहे मगर, वो अविचल छवि अपरिवर्तित रही, जिसने एक लम्बे समय तक समकालीन युवाओं को प्रभावित किया और मुश्किल घड़ी में उनका मार्गदर्शन भी किया.
वे सिर्फ एक सज्जन व्यक्ति ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील कलाकार और निर्देशक भी थे, जिन्होंने अपनी उम्र के अनुसार अपने चरित्र का चयन किया और जब लगा कि समाज सेवा का समय है तो खुद को उस सांचे में ढालने में भी कसर नहीं छोड़ी.
उनके भीतर गंभीरता इस तरह समाई थी कि किसी भी काम को हल्के में लेना या उसे अधूरा छोड़ना उनकी फितरत में ही शामिल नहीं था, तो जो भी कार्य हाथ में लिया उसे पूर्ण कर के ही दम लिया.
जिसकी वजह से वो सिर्फ एक अभिनेता, निर्देशक, समाज सेवक, नेता ही नहीं बल्कि, पति व पिता की भूमिका में भी कमतर साबित नहीं हुये. जहाँ रजत परदे पर हर एक पात्र को उन्होंने अपने अभिनय से जीवित किया, वहीं वास्तविक जीवन में अपनी ज़िम्मेदारियों को भी उतनी ही सूक्ष्मता से वहन किया जिसकी वजह से उनके जाने के बाद भी उनकी कमी महसूस होती है कि ऐसा बहुमुखी अदाकार अपनी तरह का एक ही था.
जिसको देखने पर यूँ तो वो महान शख्सियत लगते मगर फिर भी एकदम सामान्य, यानी अपना-सा लगता था, जिसकी सौम्य मुस्कराहट पर रगों में उत्तेजना नहीं बल्कि सम्मान का भाव जगता था और उसके नकारात्मक रंग-रूपों में भी कहीं-न-कहीं मानवीयता का पुट समाया था.
तो वो भी कभी हिंसक या नफरत का सबब नहीं बने चाहे वो डाकू हो या खलनायक का चरित्र उन्होंने उनको भी अपने सहज-सरल व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से उतना ही भावपूर्ण बना दिया जितना कि उनका असल चरित्र था.
आज उनके पुण्य दिवस पर उनको यही भावों भरी शब्दांजलि… !!!
सादर-नमन-प्रणाम