मन को संपूर्ण वश में करने का चरम फल है सिद्धि

yogi adityanath guru gorakhnath sadguru making india

मन की शक्ति अप्रमेय है. नाथ योग में और विशेष रूप से महायोगी गोरखनाथ की करुणा दृष्टि में मन साक्षात शिव स्वरूपा शक्ति और शक्ति का सहज अधिष्ठान शिव है ‘जीवात्मा का अभिन्न शिवस्वरूप है. और इन सभी विधाओं से अतीत परम शिव है.. यह परम शिव स्वरूप स्थिति ही उसकी निरंजन अमनस्कता है. नाथ सिद्ध मत में कहां गया है-

यह मन शक्ति यह मन शिव.
यह मन पांच तत्व का जीव..
यह मन ले जै उन्मन रहै.
तो तीन लोक की बातां कहै..

योग साधना में सिद्धि मन को संपूर्ण वश में करने का चरम फल है. यह मन योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है. इस मन को योगी उन्मन रखता है. परमात्म चिंतन के अभिमुख रखता है.

मन को शून्य पद ब्रह्मरंध्र में स्थित करना ही योगी की उन्मनी अवस्था की प्राप्ति कही जाती है. मन फिर उस पद से वापस नहीं होता. नहीं उतरता. मन के उन्मन होने पर चंद्बस्राव का पान करने पर पिंड में ही स्थित संपूर्ण ब्रह्मांडों का तात्विक अभिज्ञान योगी की बुद्धि में अभिव्यक्त हो उठता है.

वह उनका प्रत्यक्ष दर्शन(साक्षात्कार) कर परमात्मा स्वरूप के अनुभव से कृतार्थ हो जाता है. और अमनस्क योग की साधना मनोवैज्ञानिक होकर भी आत्म वैज्ञानिकता के प्रकाश में साधक को स्वरूप अनुभूति कि परम चिन्मय ज्योति अथवा आत्माभिव्यक्ति में प्रतिष्ठित करती है.

अमनस्क योग गोरक्षनाथ जी की साधना जगत को मौलिक देन है. जो महर्षि पतंजलि प्रतिपादित असंप्रज्ञात समाधि के परे की मन की महालयावस्था है. योगेंद्र मच्छिंद्रनाथ ने इस महालयावस्था को शून्य के रूप में मन का वास स्थान बताया है.

मन ऐसे तो ह्रदय से अतीत होता है पर उन्मन होकर जब अमनस्क होता है तो वह शून्य में ही महालयस्थ हो जाता है. गोरक्षनाथ जी ने गुरु मछिंद्रनाथ जी से पूछा कि यदि हृदय न रहता तो मन कहां रहता. मछेंद्रनाथ जी ने तत्काल उनकी जिज्ञासा का समाधान किया.

अवधू जब हृदय न होता तब शून्य रहता मन

(मछिंद्र गोरख बोध-२८).

मन के स्वरूप पर हमारे परम पूज्य सिद्ध पुरुष गंभीर नाथ जी ने योग रहस्य के पृष्ठ 76 पर कहा है कि केवल मात्र समाहित चित्त योगियों की ही चांचल्य निवृत्ति होती है.

संकल्प विकल्प ही मन है. मन नाम की कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है. संकल्प-विकल्प के प्रवाह को ही मन कहा जाता है. ये सत्य प्रकाश में बाधा डालते हैं. मनुष्य जितने दिन तक योग में समाहित होकर अमरत्व नहीं प्राप्त कर पाता तब तक संकल्प-विकल्प से मुक्ति नहीं पाता.

संकल्प-विकल्प के नाश से ही मनोनाश होता है. और तत्व ज्ञान की स्फुरणा होती है. संकल्प विकल्प की लयावस्था ही मन की अमनस्कता है. हमारे नाथ सिद्धों ने मनोलय के स्तर पर अत्यंत समन्वयात्मक शास्त्र सम्मत दृष्टिकोण अपनाते हुए भी नाथ योग के सिद्धांत की विशिष्टता सुरक्षित रखी है. नाथयोग में मनोलय एक अत्यंत गूढ़ और रहस्यात्मक साधन प्रक्रिया का मौलिक दृष्टिकोण है.

समुद्र की अनंतता का अंत मिल सकता है, उसकी लहरों के पार जाना सम्भव है, पर मन की रहस्यात्मकता का पार पाना कठिन है. मन की वृत्तियों का लय होने पर ही अंजन रहित निरंजन पद की प्रतिष्ठा प्रकाशित होती है.

ॐ शिव गोरक्ष आदेश!!

संकलन-योगी हरिहर नाथ/गुरु विलासनाथ अवधूत.ग्रन्थ-अमनस्क योग. प्रणेता-गुरु गोरक्ष नाथ.

Comments

comments

LEAVE A REPLY