क्या हिन्दू बच पाएंगे? लगता तो नहीं…

यह थोड़ा नकारात्मक और निराशावादी ज़रूर लग रहा होगा मगर अपना इतिहास और वर्तमान देख कर यही भविष्य नज़र आता है.

अधिकांश कहेंगे क्या बेकार की बातें कर रहे हो. कुछ इस पर प्रश्न कर सकते हैं, कैसे?

‘बेकार की बात’ कहने वालों की संख्या बहुत बड़ी है, और यही हमारे विनाश का प्रमाण है. जहां तक रही ‘कैसे’ पूछने वालों की तो उसके जवाब में कुछ कहना चाहूंगा.

कुछ समय से कहा जा रहा है कि पिछले चार साल में अनेक लोगों के चेहरों से नकाब उतरा है. “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारों का समर्थन कौन करता है, देश देख रहा है. कौन कौन राजनेता इन देश विरोधी ताकतों के साथ खड़ा है, जनता देख रही है.

यह सब तो ठीक है, मगर हम यह नहीं देख रहे कि सब कुछ देखने समझने के बाद भी इन राजनेताओं के पक्ष में देश का एक बड़ा वर्ग अब भी खड़ा है, जो चुनाव में उनके पक्ष में वोट भी करता है.

आखिर कौन लोग हैं जो दीदी का सच जानने के बाद भी बंगाल में उन्हें वोट करते हैं?

उत्तर प्रदेश में कौन लोग हैं जो बुआ-भतीजे का सच जानने के बाद भी उन्हें वोट करते हैं?

आखिरकार वो कौन लोग हैं जिन्होंने कर्णाटक में टीपू सुलतान की जयंती मनाने वालों को वोट किया?

इन सब में अधिकांश हिन्दू हैं. और इन की संख्या बहुत बड़ी है.

हिन्दुओं को बाँट कर पहले मुगलों ने, फिर अंग्रेजों ने राज किया और फिर आज़ादी के बाद यही काम “भारत तेरे टुकड़े होंगे” कहने वाले खुले आम कह भी रहे हैं और कर भी रहे हैं, और हिन्दू तमाशा बन कर ताली बजा रहा है. ऐसे में कैसे बचोगे?

और ऐसे हिन्दुओं और उनके इस तरह से वोट देने का यह सिलसिला आज का नहीं.

आज़ादी के समय बंटवारे में क्या हुआ था? पाकिस्तान से आये हिन्दुओं का हाल जानने के बाद भी वही पार्टी दशकों तक राज करती रही.

जिसके कारण लाखों हिन्दू मारे गए थे और असंख्य बेघर हुए. यह जानते हुए भी कि जो थोड़े बहुत हिन्दू पाकिस्तान में रह गए हैं उनका बाद में क्या हाल हुआ, क्या हमने कोई सबक लिया? नहीं.

फिर कश्मीर में क्या हुआ? घाटी में वो हुआ जो कभी किसी देश में कभी किसी कालखंड में नहीं हुआ. लाखों लोग अपने ही देश से पलायन करने के लिए मजबूर हुए.

क्या उपरोक्त दोनों घटनाओं से हमने कोई सबक लिया? आज तक नहीं.

तो फिर पाकिस्तान और कश्मीर की पुनरावृत्ति फिर से इस देश में नहीं होगी, कोई मूर्ख ही ऐसा सोच सकता है. कटु सत्य तो यह है कि बंगाल उस राह पर आगे बढ़ चुका है, पीछे पीछे केरल और फिर उत्तर प्रदेश कतार में हैं.

बंटवारे और कश्मीर की चर्चा आज भी कब होती है? सिर्फ राजनीति के लिए. मगर सामाजिक स्तर पर इन मुद्दों पर क्या कोई हलचल नज़र आती है?

अगर थोड़ी बहुत होती भी है तो भावना में बह कर हम वोट करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं. मगर हम यह नहीं समझ पाए कि यह कोई राजनैतिक या प्रशासनिक समस्या नहीं है. बल्कि एक सीधे सीधे एक मज़हब की कट्टरता है जिससे सामाजिक और धार्मिक स्तर भी लड़ा जाना होगा.

अगर यह सिर्फ राजनैतिक और प्रशासनिक समस्या होती तो स्वतंत्रता के बाद तो देश पर जनता की सरकार थी, तब कश्मीर कैसे खाली हुआ?

कोई कितना भी कुछ कहे अगर कश्मीरी पंडित सड़कों पर उतर जाते तो जो भी होता वो कम से कम पलायन के नारकीय जीवन से बेहतर होता.

और जो इस सड़क के संघर्ष को नहीं मानते वे हर जगह से भगाये जायेंगे. क्यों? क्योंकि वे हर जगह आज भी इसी उम्मीद में रहते हैं कि सरकार आएगी इन्हे बचाने.

इनकी मासूमियत पर कुछ ना ही कहना बेहतर होगा. और उसमें भी अगर उपरोक्त दीदी-बुआ-भतीजे की सरकार होगी तो वो क्या करेगी.

यही क्यों, अगर मोदी की सरकार भी होगी तो वो ज्यादा से ज्यादा निष्पक्ष होगी और आप को हानि नहीं पहुंचाएगी मगर सड़क पर अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई तो आप को ही लड़नी पड़ेगी.

मगर हम तो चाहते हैं कि हमने मोदी को वोट दे दिया अब हम चद्दर ओढ़ कर सो सकते हैं फिर चाहे घर में चोर ही क्यों ना घुस आया हो. अब अगर वही चोर तुम्हारा गला भी रेत जाए तो तुम चिल्लाने के लिए भी ज़िंदा नहीं बचोगे.

यही हमारी असली समस्या है. और यह आज से नहीं. पौराणिक कथाओं को देखें. हमारे देवता, राक्षसों से हर संघर्ष में अमूमन भाग कर महादेव या माता दुर्गा के शरण में पहुंच जाते थे और अंत में कोई अवतार आता और वो असुर का वध करता. और इस तरह से धर्म की स्थापना होती.

कोई इन देवताओं से यह क्यों नहीं पूछता कि धर्म की स्थापना के लिए ये स्वयं का बलिदान क्यों नहीं करते थे? हम हर बार किसी ना किसी अवतार की प्रतीक्षा ही क्यों करते हैं?

कितने हैं जो श्रीराम और श्रीकृष्ण के चरित्र से प्रेरित होकर संघर्ष का मार्ग चुनते हैं? ना के बराबर!. यहां भी हम चाहते हैं कि श्रीराम और श्रीकृष्ण अवतार रूप में प्रकट हों और हमारा कल्याण करें.

हमारे चरित्र का प्रतिनिधित्व अर्जुन बिलकुल सही करते हैं, जो युद्ध के निर्णायक मोड़ पर भी अपने शस्त्र जमीन पर रख देते हैं. हम यहां अर्जुन ही हैं जो कभी भी युद्ध के लिए तैयार नहीं. हमें हर बार श्रीकृष्ण चाहिए, समझाने के लिए. अब कहाँ से लाएं श्रीकृष्ण को, कलयुग में?

हमारे अंदर आक्रमकता नहीं. हम संगठित नहीं. हम जीवन में संघर्ष से बचते हैं. ऊपर से हमे शांति का घोल ऐसे पिला दिया गया है कि हम अकर्मण्य हो गए हैं. शांति किसे अच्छे नहीं लगती. लेकिन क्या दुर्योधन शांति से मान जाता? क्या शकुनि तैयार हो जाता?

जब राक्षस सामने हो तो शांति का कोई औचित्य नहीं. ज्ञान की बात करना भैस के आगे बीन बजाने जैसा होगा. क्या हुआ था, कश्मीरी पंडित तो बड़े विद्वान् थे? और फिर जिन्होंने उन्हें वहाँ से भगाया वे भी कोई अरब से नहीं आये थे, अधिकांश धर्म परिवर्तित हो कर ही कट्टर बने हैं.

अर्थात उस सोच, उस विचारधारा, उस जीवन संस्कृति में ऐसा कुछ है जो मानव को दानव बनाती है. इसी से विश्व जूझ रहा है तो भारत कैसे बच जाएगा?

हम ना तो इतिहास से सबक लेते हैं ना ही वर्तमान से. बुद्ध की शिक्षा में शक्ति होती तो नालंदा में पुस्तकालय नहीं जलता, उधर अफगानिस्तान कभी नहीं बनता.

ईरान का इतिहास गवाह है, कैसे एक विकसित सभ्यता खत्म हो गई. क्या आज वो यह मानेंगे कि उनके पूर्वज महान आर्य के समकक्ष थे?

क्या आज का पाकिस्तान यह मानेगा कि कभी वहां सिंधु घाटी की विकसित सभ्यता भी थी? आज वहाँ हालात किसी कबीले से भी बदतर हैं. मगर वहाँ की भीड़ अब इसी की आदि हो चुकी है.

हम भी उसी और अग्रसर हो रहे हैं. ना जाने कितने पाकिस्तान तेजी से हिन्दुस्तान में पनप रहे हैं. इसमें से हमारा कौन सा होगा, यह हममें से किसी को भी नहीं पता.

यहूदी भी विकसित थे और शांत भी. क्या हुआ उनके साथ? हर जगह से भगाये गए. मगर जब उन्होंने संघर्ष किया तो आज वे शक्ति के बल पर ही अपना अस्तित्व और अपनी जमीन बचाने में सफल हुए हैं.

और दूसरी तरफ पारसी हैं जो भाग कर भारत तो आ गए, मगर जब हम भारत से भगाये जाएंगे तो हमारे लिए कौन सी ज़मीनें होगी जो हमें शरण देंगी. 1947 और कश्मीर से भाग कर तो हिन्दुस्तान में आ गए थे, यहाँ से भाग कर कहाँ जाएंगे?

एक मानव होने के नाते मेरी पीड़ा यह है कि हमारे साथ दुनिया की आदिसंस्कृति का अंत हो जाएगा. लाखों साल का मानव का इतिहास समाप्त होकर 2000 और 1400 साल में सिमट जाएगा. हमारे साथ एक महान जीवन दर्शन विलुप्त होगा, मानवता खत्म हो जाएगी.

यकीन मानिये, इसे बचाने के लिए कोई बाहर से नहीं आएगा. सब की निगाहें इसे लूटने में है. अपने घर की जिम्मेवारी घर वालों की होती है. अपनी विरासत बचाने की जिम्मेवारी भी हमारी ही है. इसके लिए हमें असुर को पहचानना होगा, जानना होगा और समझना होगा. अब यह हमें निर्णय लेना है कि हमें पारसी बनना है या यहूदी.

और फिर आज तो हमारा संघर्ष दो-दो असुर गिरोहों से हैं, जिन्होंने हमें चारों ओर से घेर लिया है. अगर बचना है तो हमें वो अभिमन्यु बनना है, जो चक्रव्यूह को तोड़ना भी जानता हो और निकलना भी. वरना फिर महाभारत में क्या हुआ था उसके साथ, यह बताने की आवश्यकता नहीं.

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