पिता मेरे हर बात में दक्ष थे, मैं ही सती न बन पाई… शायद इसी दुःख ने कुंठा का रूप धर लिया था कि मैं अपने ही जीवन के हवन कुण्ड में कई बरसों तक जलती रही… और फिर एक दिन पिता की चिता की आग ने उस हवन कुण्ड में अंतिम समिधा दी… और यज्ञ संपन्न हुआ…

कहते हैं यज्ञ पूरा होने पर उसका प्रसाद ग्रहण किये बिना प्रस्थान कर जाओ तो अगले जन्म में वो क़र्ज़ बनकर चढ़ता है… जीवन में कई रिश्ते ऐसे ही प्रसाद ग्रहण किये बिना ही प्रस्थान कर गए… और मैं हाथ में प्रसाद लिए खड़ी रह गयी कि शायद उनको याद आ जाए कि मैं प्रसाद लिए खड़ी हूँ….
जाने वाले कभी लौटकर कहाँ आते हैं, हम बस उम्मीदों के दम पर पैरों की ज़मीन को पकड़े रहते हैं. कि समय की रेत पैरों तले से खिसक न जाए और ब्रह्माण्ड के उस छोर पर खुद को खड़ा पाएं जहाँ अकेले होना नियति होता है लेकिन अकेलेपन का भय हमें अकेला नहीं छोड़ता…
ये जीवन उसी भय से मुक्ति की यात्रा है… दक्ष के हवन कुण्ड में खुद को स्वाहा कर चुकी सती अपनी चेतना को बावन स्थानों पर गिरता देख रही है… न जाने कौन बावन लोग हैं जो अपनी ऊर्जा देकर उन्हें शक्तिपीठ बनाएंगे…
कि जब जब कोई उन बावन स्थानों में से कहीं से गुज़रेगा… उसे याद आएगा वो प्रसाद, जिसे ग्रहण किये बिना ही चला गया था… और उस स्थान पर पहुँचते ही वो पिछले क़र्ज़ से मुक्त हो जाएगा…
मेरे बाद तुम जब कभी उन स्थानों से गुज़रोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकोगे क्योंकि तुम्हारी मुक्ति चौंसठ योगिनी के द्वार पर खड़ी है…
