संविधान की हत्या

कर्नाटक के चुनाव ने आज जिस परिस्थिति का निर्माण किया है वो इस देश के लिए कतई नई नहीं है, अंतर सिर्फ इतना है कि आज जनता सजगता से घटनाक्रम को देख पा रही है. अगर मुझे मोदी जी की उपलब्धियों में से किसी एक को चुनना हो तो मैं उनको इस बात का श्रेय अवश्य देना चाहूँगा कि उन्होंने आज इस देश को वास्तविक पटल पर एकात्म में बाँधने का अभिनव प्रयास किया है. आज जहाँ हम सिर्फ अपनी गृह राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों से जुड़े नहीं हैं…

आज हम गोवा, असम, पॉन्डिचेरी, मेघालय, त्रिपुरा जैसे विस्मृत राज्यों की राजनीति में भी रुचि लेने लगे हैं. अपने जीवन के 60 बसंत पार कर लेने वाले बुजुर्ग याद कर बताएं उन्होंने कब इन प्रदेशों के चुनाव को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में देखा था.

कब-कब भारतीय मीडिया ने इन प्रदेशों के चुनाव परिणामों का इस विस्तार में लाइव प्रसारण किया था. रहने दीजिए स्मृति पर ज़ोर डालने पर भी आप ऐसा कोई घटनाक्रम याद नहीं कर पाएंगे…क्योंकि ये परिस्थिति पिछले 4 वर्षों में ही बदली है.

दरअसल अब भारत एक रूप हो रहा है, अब भारत की जनता देश के हर कोने से ख़ुद को जुड़ा हुआ पाती है, अब वो सजग है और अब प्रतिक्रियावादी भी हो चुकी है. रही बात राजनीतिक शुचिता और संविधान के रक्षण की, तो यहाँ ये भी याद रखा जाना चाहिए कि जिस देश की नींव ही राजनैतिक पक्षपात पर रखी गई हो वहां निरपेक्षता के सिद्धांत के अनुपालन का आग्रह, मूर्खता से अधिक कुछ भी नहीं है.

हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां संविधान ना भी होता तो भी कुछ ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता, एक ऐसा संविधान जो अपने निर्माण के बाद से ही खुद अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो उसके होने या ना होने से किसी को क्या अंतर पड़ता है.

जो संविधान आज तक यही स्पष्ट नहीं कर सका कि उसका वास्तविक निर्माता कौन है. जिसे हमने अंगीकार किया है यानी जिस तरह हम पर थोप दिया गया उसी रूप स्वीकार कर लिया है…

यहां जनता कहीं नहीं है, उसने किसी को इसे बनाने के लिए अधिकृत नहीं किया, जिसे बनाने का प्रस्ताव भी ब्रिटेन की संसद में पारित किया गया, जो आज तक इस देश के नागरिक को ही परिभाषित नहीं कर सका, वो संविधान किस आधार पर इस देश में लोकतंत्र की स्थापना को अक्षुण्य बनाए रख सकता है.

वर्तमान परिदृश्य में इस लोकतंत्र के रक्षण की दुहाई अपने आप में हास्यास्पद है. आज की परिस्थिति को ही लें तो हमारा संविधान कहता कि स्पष्ट बहुमत ना मिलने की स्थिति में राज्यपाल स्वयं के विवेक से निर्णय कर सकता है, अब इस विवेक को कैसे परिभाषित किया जाएगा, क्योंकि हर व्यक्ति का विवेक अलग हो सकता है, उसे किस बात से संतुष्ट होना है ये कौन निर्धारित करेगा…

ज़ाहिर है जहाँ दो पक्ष हैं वहाँ किसी एक के पक्ष में ही जाया जा सकता है और दूसरा पक्ष उस निर्णय को गलत कहेगा ये भी स्पष्ट है. तब फैसला आख़िर हो कैसे… आप कहेंगे उसके लिए न्यायपालिका है, पर वहां भी तो यही स्थिति है वहां भी पक्ष और विपक्ष है, दोनों पक्षों के वकील एक ही जगह पर खड़े होकर एक ही कानून की अलग-अलग व्याख्या करते हैं.

पर फैसला होता है न्यायाधीश के विवेक से.. उसका विवेक जिस पक्ष की दलीलों से संतुष्ट होता है उसके पक्ष में फैसला होता है. अगर वो गलत दलीलों से संतुष्ट हो जाए तब भी आप उसे चुनौती नहीं दे सकते….

निचली अदालतों से सजा पाए मुजरिम ऊपरी अदालतों से बाइज़्ज़त बरी होते हैं. पर हम गलत फैसला करने वाले निचली अदालत के जज को फाँसी नहीं दे देते. कुल जमा बात ये है कि ब्रम्हाण्ड में कोई भी स्थिति आदर्श नहीं है और ना हो सकती है.

आज का सत्ता पक्ष ये जानता है कि सत्ता हर स्थिति को आदर्श बना सकती है, इसलिए वो उसे पाने को प्रयासरत है और ये कोई बुरी बात नहीं है. आज कष्ट उनको हो रहा है जो खुद लोकतंत्र और संविधान का गला घोंटने के अपराधी रह चुके है. जो आज ख़ुद को ख़ुद की शैली में मिलने वाले जवाब से बौखलाए हुए है. संविधान की धज्जियाँ उड़नी ही चाहिए, ये उधार के पन्नों का पुलिंदा अपनी प्रासंगिता खोने के नज़दीक पहुंच रहा है. मुझे उस दिन का इंतज़ार जब इस देश से लोकतंत्र भी ख़ारिज कर दिया जाएगा…

अंत में बा-क़ौल “दिनकर”
गरल अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है….

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