चीनी के मंदे भावों पर केंद्रीय वित्त मंत्री जो सेस लगाने जा रहे थे, उसमें फिलहाल कुछ प्रदेश सरकारों के विरोध के कारण वे सफल नहीं हो पाए… यानी चीनी पर सेस टल गया.
आखिर समझ में नहीं आता सरकारें गन्ना भुगतान को इतना बड़ा इश्यु क्यों बना देती हैं?
2015 में चीनी में भयंकर मंदी पर अर्थशास्त्रीयों. चीनी मिल मालिकों और व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग चीख चीख के हलकान हो गया कि सरकार को चीनी का बफर स्टॉक बनाना चाहिये…
लेकिन चीनी 2100 रूपए तक के भाव पर आ गयी पर सरकार ने बफर स्टॉक नहीं बनाया… और फिर वो ही चीनी 2016 और 2017 में 4200 रूपए का भी भाव देख कर आई…
अब पुनः चीनी का रिकॉर्ड उत्पादन है… वैश्विक स्तर पर भी ये ही हालत है… सो भाव फिर से मंदे हैं… चीनी मिल घाटे में आ गये, किसानों के भुगतान रुक गये…
इधर किसान परेशान, उधर मिल वाले हलाकान, ऐसी हालत में सरकार भुगतान का तो कोई रास्ता ढूंढ नहीं रही, उलटे टैक्स लगाने की जुगाड़ सोचने में लग गयी…
भारत में कोई भी कृषि जिंस लगातार अच्छा उत्पादन नहीं दे पाती है… इस साल कुल उपलब्धता 3.10 करोड़ टन की है, तो निश्चित है आने वाले दो वर्षों में इसका उत्पादन घटेगा ही घटेगा… भले ही उसके कारण कुछ भी बनें…
अब क्या सरकार को चीनी का बफर स्टॉक नहीं बनाना चाहिए…
हालाँकि बफर स्टॉक में केवल नकदी की ही ज़रूरत नहीं पड़ती बल्कि भंडारण के लिए गोदामों की भी ज़रूरत पड़ती है.
जगह की समस्या के हल के लिए सरकार चीनी खरीद कर चीनी मिल मालिकों के गोदामों में ही अपना ताला लगा कर रख सकती है… उसकी सेफ्टी की पूरी जिम्मेदारी भी मिल मालिक के ऊपर डाली जा सकती है.
इसके साथ ही उस खरीद की रकम चीनी मिल मालिक को ना दे कर गन्ना किसानों को दी जाय…
इससे चीनी के भावों की मंदी भी रुकेगी और अगले किसी उत्पादन संकट के साल में वो बफर स्टॉक काम आयेगा… इसके लिए चीनी मिल मालिक के सामने शर्त लगा दी जाय कि जल्द जरूरत नहीं पड़ी तो स्टॉक का पुराना नया उसी को करना पड़ेगा.
हाँ एक काम ज़रुर किया जाए… जिन किसानों को इस व्यवस्था में भुगतान किया जाय उससे अगले सीजन में गन्ना बुवाई कम करने का शपथ पत्र ज़रुर लिया जाय कि वो गन्ने की जगह कोई दूसरी कैश जिंस बोयेगा.
इस स्थिति में केवल एक सवाल उत्पन्न होता है कि चीनी मिलवाले उस माल में गड़बड़ी ना कर दें… तो प्रधानमंत्री जी का नाम ही काफी है सो कोई भी मिल मालिक ऐसा नहीं कर सकता.