1991 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रोकने के बाद भाजपा ने वीपी सिंह से समर्थन वापस लिया.
सरकार गिरी. फिर राजीव गाँधी & कम्पनी ने 63 वर्षीय ‘युवा तुर्क’ चंद्रशेखर को बाहरी समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनवा दिया.
नवम्बर 1991 से जून 1992 तक… 8 महीने का दर्द झेलने के बाद कांग्रेस को सत्ताप्राप्ति की प्रसव पीड़ा शुरू हुई.
इन दिनों भी काँग्रेस इसी प्रसव पीड़ा से गुजर रही है लेकिन इस बार डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही है कि इसके पेट में गर्भ नहीं, ट्यूमर है… ये ट्यूमर का दर्द है.
हाँ, तो राजीव गाँधी ने सरकार पर दो मामूली पुलिसवालों से अपनी जासूसी का आरोप लगाकर चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया. सरकार गिर गई और चुनाव की तैयारी शुरू.
अब राजीव गाँधी के सामने वीपी सिंह या चंद्रशेखर चुनौती नहीं थे. असली चुनौती थी… भाजपा और लालकृष्ण आडवाणी.
मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार आडवाणी को रोकने के लिये राजीव गाँधी फिर हेमवतीनंदन बहुगुणा वाला 1984 का इलाहाबाद दोहराना चाहते थे… लेकिन इस बार तुरुप का इक्का अमिताभ बच्चन साथ छोड़ चुके थे.
अमिताभ ने जिस जल्दबाजी में बोफोर्स में नाम आने के बाद संसद की सदस्यता छोड़ी और राजीव गाँधी से पिंड छुड़ाया था… उसकी चुभन राजीव गाँधी को मरते दम तक थी… इसलिये आजतक गाँधी परिवार से बच्चन के रिश्ते सामान्य नहीं हो पाये.
‘आनंद’ में तो ठीक था लेकिन सुपर स्टार राजेश खन्ना को ‘नमक हराम’ में भी निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी का अमिताभ को ज्यादा फुटेज देना रास नही आया था.
फिल्म ‘बावर्ची’ के सेट पर एक बार तो काका ने जया भादुड़ी को बोल भी दिया था कि… इस आदमी के चक्कर में अपना कैरियर बर्बाद मत करो… इसका कुछ नहीं होना है.
खैर… खुंदक की वजह कई थीं और दोनों तरफ से थीं. आखिर हुआ ये कि अमिताभ की रोशनी में काका का सितारा अदृश्य हो गया.
दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. राजीव गाँधी ने अमिताभ को जवाब देने के लिये राजेश खन्ना को आडवाणी के सामने दिल्ली में चुनाव लड़वाने का फैसला किया.
ये भी कहीं पढ़ा था कि राजेश खन्ना ने काँग्रेस का ऑफर तभी स्वीकार किया जब खुद राजीव गाँधी ने उनसे बात की.
तीर निशाने पर लगा… आडवाणी बमुश्किल 1500 वोट से अपनी लोकसभा सीट बचा पाये.
कुछ पत्रकारों ने रिपोर्टिंग की थी कि नतीजों के बाद राजेश खन्ना ज़मीन पर लेट गये थे… हार उन्होंने स्वीकार नहीं की थी… उनका कहना था, उनके साथ चीटिंग हुई है… राजेश खन्ना कभी हार नहीं सकता.
बाद में आडवाणी जी के सीट छोड़ने के बाद हुए उपचुनाव में काका ने शत्रुघ्न सिन्हा को हराकर अपनी कसक पूरी कर ली थी.
यहाँ ध्यान देने वाली दो मुख्य बातें है कि…
1. इलाहाबाद की ‘समझदार’ जनता ने अमिताभ के मोह में बहुगुणा जैसी शख्सियत को हरा दिया था और ताजा-ताजा रथयात्रा में लाखों लोगों का जनसमर्थन हासिल करने वाले, राम मंदिर के लिये संघर्ष कर रहे और पूरे देश का माहौल बदलकर रख देने वाले, हिंदू हित और हिंदू हक की बात करने वाले आडवाणी को भी दिल्ली की जनता ने लगभग हरा ही दिया था…
इसलिये ज्यादा कट्टर हिंदू बनकर और अतिनैतिक बनकर… हर बात में मोदी सरकार को गरियाने वाले अतिउत्साही, इतिहास से सबक लें… सत्ता गयी तो तुम्हारी ये कट्टरता और नैतिकता रखी रह जायेगी.
2. दुश्मन का दुश्मन हमेशा दोस्त होता है… भले ही वो आपस में एक-दूसरे को पसंद करें या ना करें. आज विपक्ष की राजनीति इसी फार्मूले पर चल रही है. सबकी दुश्मनी मोदी से है… मोदी से मतलब हिंदुओं से है…
या आप ये भी समझ सकते है कि… हिंदुओं से मतलब हिंदुस्तान से है… तो जब सारे दुश्मन एक हो सकते हैं तो देश को, भाजपा को, या मोदी को पसंद करने वाले सभी लोग एक क्यूँ नही हो सकते? सवाल वाजिब है क्योंकि सिर्फ एक साल बचा है आपके पास.