हमारी ईश्वर की धारणा बहुत बचकानी है. हम ईश्वर को व्यक्ति की भांति देख पाते हैं. और तभी अड़चनें शुरू हो जाती हैं. जैसे ही ईश्वर को व्यक्ति माना कि धर्म पूजा—पाठ बन जाता है; ध्यान नहीं, पूजा—पाठ, क्रिया—कांड, यज्ञ—हवन. और ऐसा होते ही धर्म थोथा हो जाता है.
किसकी पूजा? किसका पाठ? आकाश की तरफ जब तुम हाथ उठाते हो, आंखें उठाते हो, तो वहां कोई भी नहीं है. तुम्हारी प्रार्थनाओं का कोई उत्तर नहीं आएगा. इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रार्थना व्यर्थ है. इसका इतना ही अर्थ है कि प्रार्थना के उत्तर की प्रतीक्षा व्यर्थ है. प्रार्थना अपने आप में आनंद है; साधन नहीं है, साध्य है. अभिव्यक्ति है तुम्हारे भीतर उठे हुए कृतज्ञता के भाव की.
इस विश्व ने तुम्हें इतना दिया है—बिन मांगे दिया है; तुम्हारी पात्रता भी नहीं है, वह सब भी दिया है! सौंदर्य को देखने वाली आंखें दी हैं; संगीत को सुनने वाले कान दिए हैं; प्रेम को अनुभव करने वाला हृदय दिया है. जीवन के रहस्यों को प्रतीति करने वाली प्रज्ञा दी है. जीवन के आत्यंतिक केंद्र का साक्षात्कार करने की, समाधि की क्षमता दी है. और क्या चाहिए? और क्या मांगोगे? तुम जो मांगोगे बहुत छोटा होगा.
काश, तुमने मांगा होता तो बहुत कम आशा है कि तुमने समाधि की क्षमता मांगी होती. बहुत कम आशा है कि तुमने सौंदर्य की प्रतीति मांगी होती, कि तुमने संगीत का अनुभव मांगा होता, कि तुमने काव्य की स्फुरणा मांगी होती. तुमने कुछ दो कौड़ी की चीजें मांगी होती— धन, पद, प्रतिष्ठा. तुमने एक बड़ा मकान मांगा होता, बड़ी दुकान मांगी होती, बैंक में बड़ा खाता मांगा होता.
अच्छा ही है अस्तित्व ने तुमसे नहीं पूछा—क्या चाहिए? अस्तित्व ने तुमसे बिना पूछे तुम्हें दिया है. और इतना दिया है कि तुम अगर हिसाब लगाने बैठोगे तो हिसाब न लगा पाओगे. अकूत दिया है! लेकिन कोई व्यक्ति नहीं है जो दे रहा है; समष्टि है. यह सारा अस्तित्व ऊर्जा का एक अपूर्व अनुभव है.
ओशो : कहे होत अधीर–(प्रवचन–12)