बेटे ने एक दिन एक बहुत ही पॉइंट-ब्लैंक प्रश्न पूछा – पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं में कौन बेहतर है?
अब इसका सेफ उत्तर तो यह है कि दोनों व्यवस्थाओं के फायदे और नुकसान गिना दिए जाएँ और उसे उतना ही कन्फ्यूज्ड छोड़ दिया जाए. यह एप्रोच सेफ तो है, पर उपयोगी नहीं.
मैंने जड़ से शुरुआत की –
पूंजीवाद क्या है? मान लो, इस मोहल्ले में चार लोगों ने हज़ार-हज़ार पौंड की पूंजी लगा के एक-एक दुकानें खोलीं. फिर उससे हुए मुनाफे को बचाकर उनमें से एक ने बाकी की दो दुकानें खरीद लीं.
अब उसके पास तीन दुकानें हो गईं, वह बड़ा व्यापारी हो गया और उसने एक कंपनी बना ली. दूसरा अकेला दुकानदार छोटा व्यापारी बना रहा. दोनों एक फैक्ट्री से अपना माल खरीदते हैं.
अब बड़े व्यापारी ने एक फैक्ट्री बैठा ली. अब छोटा व्यापारी उसी बड़े व्यापारी की फैक्ट्री से अपना माल खरीदने लगा.
अब उस कंपनी ने दूसरी फैक्ट्री भी खरीद ली और वह उद्योगपति बन गया. फिर वह अपनी फैक्ट्री के पुर्जे और टेक्नोलॉजी किसी और बड़ी कंपनी से खरीदने लगा जो और बड़ा उद्योगपति है.
इस तरह एक पिरामिड खड़ा हुआ जिसके बेस में उन दुकानों और फैक्टरियों में काम करने वाले कर्मचारी हैं जो अपनी सैलरी लेते हैं, और घर जाते हैं.
उन्हें व्यापार के नफा नुकसान से सीधा मतलब नहीं है, पर उनका हित इसी में है कि व्यवसाय चलता रहे. उसके ऊपर छोटे व्यापारी हैं, उसके ऊपर बड़े व्यापारी और उद्योगपति हैं…
यही एक मात्र तंत्र है जो प्राकृतिक है और जो काम करता है. इसके अलावा अगर कोई और वैकल्पिक तंत्र है तो वह कृत्रिम है.
उसने पूछा; यह तो बिज़नेस मॉडल है. पर मेरी समस्या इससे निकलने वाला सोशल मॉडल है. जो इस बिज़नेस मॉडल के शिखर पर है वह अपने धन और प्रभाव का प्रयोग राजनीतिक शक्ति को प्रभावित करने में करेगा. राजसत्ता के निर्णय इस धन शक्ति से प्रभावित होंगे…
हाँ! होंगे. धन से शक्ति आती ही है. धन के पिरामिड के शिखर पर राजनीतिक शक्ति विराजमान होती ही है. यह भी प्राकृतिक है. पर उस राजनीतिक शिखर का हित इस पिरामिड के स्थायित्व में, स्टेबिलिटी में है.
इसलिए उसे इसके बेस को मज़बूत और सुखी रखना चाहिए, और ऊपर से नीचे धन का संचार होते रहने देना चाहिए जिससे इसका गुरुत्व-केंद्र स्थिर रहे. यह प्राकृतिक समाज व्यवस्था है. अगर एक समाज को स्थायित्व के साथ पनपना, फलना-फूलना है तो वह इस व्यवस्था को स्वाभाविक रूप से स्वीकार करेगा.
फिर इस व्यवस्था में वामपंथी कहाँ से आते हैं और वे कौन हैं?
वामपंथी इस व्यवस्था में बीच के वे लोग हैं जो इस स्वाभाविक स्पर्धा में शिखर तक पहुंचने से रह गए. श्रम, उद्यम, संचय, निवेश की प्रक्रिया में पीछे छूट गए.
ये वो उद्योगपति-व्यवसायी-पूंजीपति हैं जो अपनी क्षमता और योग्यता से ज्यादा राजनीतिक शक्ति अर्जित करना चाहते हैं.
इन्होंने समझा है कि इस पारंपरिक व्यवस्था में वे शिखर तक नहीं पहुँच पाएंगे. तो उन्होंने शीर्ष तक पहुंचने के लिए इस पिरामिड पर बाहर से सीढ़ी लगाने का प्रबंध किया. महत्वाकांक्षा की इसी सीढ़ी का नाम वामपंथ है.
ये वो लोग हैं जो इस पिरामिड की व्यवस्था को चैलेंज करने के लिए इसके बेस में लगे लोगों को अपनी ओर आने का लालच देते हैं. उन्हें बिना इस पिरामिड का भाग बने शीर्ष तक पहुंचाने का आश्वासन देते हैं. उन्हें एक उल्टे पिरामिड का यूटोपिया भी दिखाते हैं.
उन्हें भी पता है कि यह उल्टा पिरामिड स्थिर नहीं रहेगा. पर उनकी ज़िद है अगर उन्हें व्यवस्था को बाईपास करके सीढ़ी से ऊपर जाने का अवसर नहीं दिया गया तो वे इस पिरामिड को उलट देंगे, या गिरा देंगे. इसलिए वे बेस से ईंट खिसका कर अपनी सीढ़ी बनाने में व्यस्त हैं.
उनकी इंजीनियरिंग में, उनके ब्लूप्रिंट में जो उल्टा पिरामिड दिख रहा है, वह उनका उद्देश्य नहीं है. बल्कि एक अस्थिर पिरामिड के ध्वंस पर बैठे स्वयं वे ही इसका उद्देश्य हैं.
पहले उन्होंने इसके बेस से ईंटें खींचने की कोशिश की. जिसे मज़दूर और किसान आंदोलन का नाम दिया. पर इसमें उन्हें ज्यादा ईंटें खिसकानी पड़तीं. तो उन्होंने इस पिरामिड की संरचना का अध्ययन किया कि कहाँ कहाँ से ईंटें खिसकाने से पिरामिड ज्यादा अस्थिर होगा.
उन्होंने इसमें शिक्षा, इतिहास, धर्म, परिवार की ईंटें खिसकानी शुरू कीं और उनके बदले अपनी कागज़ी ईंटें लगा दीं, जिससे कि संरचना के स्थिर रहने का भ्रम बना रहे. और जब यह पिरामिड गिरे और उस ध्वंस के शिखर पर चढ़कर वे बैठें तो उन्हें अपने नीचे मज़दूरों, किसानों, कामगारों का वह आधार अभी भी चाहिए जो इस भग्नावशेष के बेसमेंट में पड़ा, दबा कुचला जाता रहेगा.
वामपंथी नेतृत्व की रुचि आज किसानों, मज़दूरों के आंदोलन में समाप्त हो गई है. क्योंकि उन्हें अपनी परजीविता के लिए यह पूंजीवादी इंफ्रास्ट्रक्चर जीवित चाहिए. अगर इसे पूरी तरह नष्ट कर दिया तो ये परजीवी वामपंथी कैसे सर्वाइव करेंगे.
एक पैरासाइट के हित में अपने होस्ट को मारना नहीं है. उसका हित इसी में है कि होस्ट बीमार पर जीवित रहे. इसलिए आज वामपंथी आंदोलन पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध नहीं खड़ा है.
समाज की मूल संरचना का आर्थिक आधार पूंजीवाद ही है. पर एक स्वस्थ पूंजीवाद वह है जिसका आधार मज़बूत और संपन्न हो, और उसमें वामपंथी समाजवादी पैरासाइट नहीं हों.