कहीं एक विचित्र विचार पढ़ने को मिला कि मीरा अपनी कल्पना में कृष्ण से संभोग किया करती थी. इसलिए उसका ध्यान अपने पति की ओर नहीं जाता था.
ये जिसने भी लिखा है वो न सिर्फ अधकचरा है, अपितु, जाने अनजाने एक विकृति को फैलाने के षड़यंत्र में लगा है.
पहले मीरा की अवस्था को महायोग साधन के प्रकाश में समझें.
मीरा योगभ्रष्ट साधिका थीं. सिद्ध महायोग का साधन इतना अद्भुत है कि साधक जिस अवस्था में देह त्याग करता है उसी को लेकर अगले जन्म में आरंभ होता है.
कुछ लोगों के मत से मीरा कृष्ण की एक गोपी थी जो उनकी देह से अत्यधिक आसक्ति के कारण तब मुक्त नहीं हो पाई थी. कृष्ण ने उसे आश्वासन दिया था कि कलयुग में जब वो जन्म लेगी तो समय की सीमा लांघकर कृष्ण उस तक पहुँचेंगे और उसे साथ ले जाएंगे. ये आश्वासन आवश्यक था अन्यथा वह सहज हो देह नहीं त्याग पाती.
ये कथा अपनी जगह….. हम बात कर रहे हैं महायोग साधन की. जब सिद्ध की कृपा कटाक्ष से साधक की कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है तो मूलाधार चक्र को भेदकर सुषुम्ना नाड़ी से होती हुई सिर में सहस्रार चक्र में आकर परम तत्व में लीन हो जाती है.
अंतर्यात्रा के पथ पर 7 सोपान आते हैं. हरेक सोपान या चक्र की अपनी ऊर्जा है. जिस साधक का जो चक्र खुलता है उसका व्यक्तित्व उसी चक्र की ऊर्जा को अभिव्यक्ति देता है.
हृदय में स्थित अनाहत चक्र में शक्ति को आह्लादिनी कहा गया है. जो साधक यहां तक आ गया उसका सारा जीवन निरपेक्ष प्रेम और आह्लाद का संगीत हो जाता है. कामवासना उससे तिरोहित हो जाती है. परमात्मा की स्मृति और उसका नाम ही काफी है. साधक एक दिव्य नशे में चूर बाह्य जगत से उदासीन अपने में खोया मस्त सा डोलता रहता है.
मीरा अपने पूर्व जन्म में अनाहत चक्र की साधना में देहत्याग कर गई थी. इस जन्म में वो बीजरूप संस्कार लेकर जन्मी. उसके घर आए एक साधु ने उसे कृष्ण की प्रतिमा दी. आह्लादिनी स्पंदित हो गई. माँ ने मजाक में कहा, “तेरा पति तो ये ही है, गोपाल!!” आह्लादिनी जाग गई. फिर कहानी बहुत घूम फिर कर रैदास के पास सिद्ध महायोग साधन की दीक्षा में समाहित हो गई.
मीरा सदेह कृष्ण की प्रतिमा में विलीन हो गई.
अब प्रश्न यह है कि मीरा ने कृष्ण के साथ काल्पनिक संभोग किया या नहीं???
उत्तर है, नहीं. संभोग स्वाधिष्ठान चक्र की ऊर्जा है. तंत्र के वाममार्ग में शिव शक्ति के भैरव भैरवी रूप के अतिरिक्त हमें किसी देवता के अपनी शक्ति के साथ संभोगरत चित्र या प्रतिमा उपलब्ध नहीं होते. कारण, भैरव का पथ स्वाधिष्ठान चक्र की ऊर्जा को उठाने का पथ है. बाकी सब देवताओं को उस स्वरूप में देखना अनावश्यक भटकाव होगा.
अनाहत चक्र में आकर शक्ति को ऊपर उठाने की आवश्यकता नहीं होती. वहां स्वभाव से ही ऊर्ध्व गति होती है. मीरा जिस अवस्था में थी, उनके लिए काल्पनिक या वास्तविक किसी भी प्रकार के संभोग की आवश्यकता ही समाप्त हो गई थी. ऐसी ही गति कश्मीर की शिवयोगिनी लल्लेश्वरी की थी. जब आवश्यकता नहीं रही और अंतर्यात्रा में आह्लादिनी का हाथ थाम लिया, तो मीरा अपने पति की वासनापूर्ति की साधन कैसे बनती?
क्यों आते हैं ऐसे विचार???
कुछ लोगों को इस बात की तनख्वाह दी जा रही है कि हर मंच से सनातन के सम्मान को कलंकित किया जाए. ये सब इतनी होशियारी से होता है कि आप अगर कच्चे हैं तो इनके संवाहक बन जाते हैं.
यदि बहुत चतुराई से आपको ये समझा दिया गया कि मीरा कृष्ण के साथ मानसिक संभोग करती थी तो बहुत ही आसानी से बाद में मीरा को कामविकृत मनोरोगिणी प्रमाणित किया जा सकता है. मीरा के साथ सब संत मनोरोगी साबित कर दिए जाएंगे. आपका सनातन धर्म विकृतियों का उद्गम साबित कर दिया जाएगा. और विकृतों को आप पर थोपना आसान हो जाएगा.
ये सब कार्य कर रही हैं वामी खलकामी बहुत चालाकी से अधकचरे आध्यात्मिक लोगों से संबंध बनाते हैं और इस तरह के विचार उन पर लाद देते हैं. वे बेचारे अध्ययनहीन, चिंतनहीन, साधनहीन गधे. बौद्धिकता के जोश में इस विष को वहन करने लगते हैं और समाज में इसे फैलाने में लग जाते हैं.
- अज्ञेय आत्मन