“ब्राह्मण को मालिक कहने के दिन अब बीत गये. गोरों की सेवा के दिन अब बीत गये. याचक पर अत्याचारों के दिन अब बीत गये. धोखेबाजों की सेवा के दिन अब बीत गये.”
दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. द्वितीय वर्ष के छात्रों को तमिल से हिन्दी में अनुवादित यह कविता पढ़ना है. इस कविता का नाम “स्वतंत्रता का पल्लु” है और “सुब्रह्मण्य भारती” इसके रचनाकार हैं.
सुब्रह्मण्य भारती एक तमिल ब्राह्मण हैं. मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही विशिष्ट काव्य प्रतिभा के लिए इन्हें “भारती” (ज्ञान की देवी सरस्वती) की उपाधि प्रदान की गई. ये एक साथ साहित्यकार, पत्रकार, समाज सुधारक तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी हैं.
भगिनी निवेदिता और श्री अरविंद से मुलाकात ने इनके जीवन को बदल दिया. इनके प्रभाव में ये नास्तिक होने से न केवल बच गये बल्कि अनेको कृष्ण भक्ति की कवितायें लिखीं. इनमें वेदों के प्रति रुचि है, जातिवाद का अंत करना चाहते हैं और महिला सशक्तिकरण के पुरजोर हिमायती हैं.
ये विचारधारा से वामपंथी नहीं हैं. ये उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस के गरम दल से संबंध रखने के कारण अंग्रेजों के हिट लिस्ट में थें. इन्हें दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच एकता के सेतु रूप में भी देखा जाता है.
ऐसे डायनमिक पर्सनैलिटी का दिल्ली विश्वविद्यालय के सिलेबस में स्थान देना, एक सराहनीय कदम है. लेकिन प्रश्न यही है कि इतनी विविधता से भरे व्यक्तित्व की विपुल रचनाओं में से यही ब्राह्मणों को विलेन साबित करने वाली कविता ही विश्वविद्यालय के सिलेबस निर्धारकों को क्यों पसन्द आई? मात्र उन्नीस-बीस साल के अबोध मस्तिष्क पर ऐसी कवितायें कितनी गहराई तक जहर भरती होंगी, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.
ये रचना आज से सौ साल पहले की है. इसमें “पल्लु” नामक दलित जाति के हर्ष और उल्लास का वर्णन किया गया है. हो सकता है ये कविता सौ साल पूर्व के मद्रास के किसी क्षेत्र विशेष के देश, काल व परिस्थिति में प्रासंगिक रहा हो, पर आज सौ वर्ष बाद उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में ऐसी कविताओं का क्या प्रयोजन है?
इनकी मेलाफाइड इंटेंशन का पता तो इसी से चल जाता है कि वो ब्राह्मण विरोधी कविता पढ़ाते हुए, बहुत ही शातिराना तरीके से छात्रों से ये बात छुपा लेते हैं कि सुब्रमण्य भारती स्वयं भी एक तमिल ब्राह्मण हैं. अगर ये उनकी जाति बता देते तो इनका विभाजनकारी हित पूरी तरह सध नहीं पाता. सारे नहीं तो कुछ प्रज्ञावान छात्रों के मन में ये बात जरूर आती कि अगर कहीं बुरा हो रहा था तो बुराई को मिटाने का प्रयास भी उसी समाज के कुछ महामना कर रहे थे.
विश्वविद्यालय के इन वामपंथी सिलेबस निर्धारकों की मक्कारी की पहले तो हमलोगों को खबर ही नहीं है. अगर आप मुश्किल से कुछ समझ कर इसका विरोध करेंगे भी तो ये घाघ लोग कविता पर डिस्कस न करके उसके महान कवि की महानता पर आपसे बहस करके आपको हरा देंगे.
जब एक मायावी मारीच स्वर्ण हिरण बनकर आया, तो स्वयं जगतजननी माता सीता की बुद्धि भी उस पर मोहित हो गई और कितना बड़ा अनिष्ट घटित हो गया. इन कलयुगी मायावी मारीचियों ने अपना रूप बदल लिया है. ये हमारे घरों में ही हमारे बच्चों को आधा वामपंथी बना चुके हैं, जोकि उनके सबसे घातक हथियार हैं और हम लाल झंडे वालों की घटती संख्या देखकर फूले नहीं समा रहे हैं.