टैवर्नियर (Tavernier) ने बताया कि शूद्र पदाति योद्धा होते थे, डॉ अंबेडकर का शूद्र मेनिअल (menial) जॉब वाला शूद्र नहीं. साथ में जानिए कि एक महत्वपूर्ण तबका PAUZCOUR कहाँ गायब हो गया इतिहास के पन्नों से?
आश्चर्य होता है जब भारत के इतिहासकार और अछूतोद्धार के योद्धा डॉ अंबेडकर और उनके अवैध वंशज, जो अपने आप को दलित चिंतक कहते हैं, भारत में अछूतों को 3000 साल से सवर्णों का गुलाम मानते आये हैं.
ब्राह्मनिज्म के नाम पर आज तक मलाई खाते आए इन मूढ़मतियों को फिर से नए अध्ययन की आवश्यकता है.
आज मैंने Tavernier नाम के एक फ़्रांसिसी के 17वीं शताब्दी के यात्रा वृत्तांत से कुछ पृष्ठों को उद्धृत किया है.
Tavernier इतिहासकारों का एक महत्वपूर्ण और विश्वस्त सूत्र रहा है भारत के इतिहास लेखन में, लेकिन न जाने कैसे उसी सूत्र के इन महत्वपूर्ण पन्नों को जाने अनजाने इन इतिहासकारों ने अपठनीय समझकर छोड़ दिया.
आप इस लेख को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को किस तरह उपहासजनक तरीके से लिखा है, इसकी मिसाल आपको कहीं अन्यत्र नहीं मिलेगी.
इतिहास और उपन्यास दो अलग विधाएं हैं. भारतीय इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को उपन्यास विधि से प्रस्तुत किया है.
ये मात्र 338 वर्ष पूर्व पहले Tavernier ने भारत के हिन्दू समाज का वर्णन किया है. अचम्भे की बात ये है कि उसने लिखा कि शूद्र क्षत्रियों की तरह ही योद्धा हुआ करते थे.
डॉ अंबेडकर ने भी यही सिद्ध करने की कोशिश की थी अपने थीसिस – “शूद्र कौन थे” में. लेकिन उनके तर्कों में दम तो है लेकिन तथ्य नहीं है.
आप Tavernier के इस लेख को पढ़िए, आप को प्रमाणिक साक्ष्य दिख जाएगा कि डॉ अंबेडकर का लेखन औपन्यासिक विधा में प्रस्तुत किया गया बेहद तार्किक परंतु तथ्यहीन इतिहास भर है.
Jean-Baptiste Tavernier (1605 – 1689) was a 17th-century French gem merchant and traveler. Tavernier, a private individual and merchant traveling at his own expense, covered by his own account, 60,000 leagues, 120,000 miles making six voyages to Persia and India between the years 1630-1668. In 1675, Tavernier, at the behest of his patron, Louis XIV, published Les Six Voyages de Jean-Baptiste Tavernier (Six Voyages, 1676).
Of the Religion of gentiles and Idolaters of India – Jean-Baptiste Tavernier :
“भारत में मूर्तिपूजकों की संख्या इतनी ज्यादा है कि एक मोहम्मडन की तुलना में 5-6 मूर्तिपूजक होंगे. ये अत्यंत आश्चर्यजनक है कि संख्या में इतना ज्यादा होने के बावजूद ये मोहम्मडन प्रिंसेस के गुलाम बने हुए है.
लेकिन आपका आश्चर्य समाप्त हो जाता है जब आप पाते हैं कि इन मूर्तिपूजकों के अंदर कोई एकता नहीं है, अन्धविश्वास (जो शास्त्र बाइबिल में न फिट बैठे वो superstition) ने इनके अंदर इतनी, वैचारिक और रीति रिवाज़ की भिन्नता पैदा कर दी है कि इनमें एका संभव ही नहीं है.
एक caste का व्यक्ति दूसरी caste के घर खाना नहीं खा सकता है और न ही पानी पी सकता है, सिर्फ अपने से उच्च सामाजिक वर्ग को छोड़कर. अतः सारे लोग ब्राह्मण के घर खाना खा सकते हैं या पानी पी सकते हैं, और उनके घर समस्त संसार के लिए खुले हुए हैं.
इन मूर्तिपूजकों में caste शब्द का प्रयोग उसी तरह से है जैसे पहले यहूदियों में एक ट्राइब होती थी. यद्यपि सामान्यतया ये विश्वास किया जाता है कि यह 72 caste हैं परन्तु मैंने ज्ञानी पंडितों से पता किया तो पता चला कि ये मुख्यतः 4 caste ही हैं, और उन्हीं चारों caste से सभी की उत्पत्ति हुई है.
इसमें प्रथम caste को ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है जो उन प्राचीन ब्राह्मणों और दार्शनिकों के वंशज हैं जो खगोल शास्त्र पढ़ा करते थे. ये आज भी उन्हीं प्राचीन पुस्तकों के अध्ययन मनन में संलिप्त रहते हैं. ये इस विद्या में इतने निपुण हैं कि सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण की सटीक भविष्यवाणी में एक मिनट की चूक नहीं करते.
इनकी इस विद्या को सुरक्षित रखने के लिए बनारस नाम के एक कसबे में विश्वविद्यालय हैं जहाँ ये मुख्यतः खगोलशास्त्र का अध्ययन करते हैं, और जहाँ और विद्वान लोग भी हैं जो अन्य शास्त्रों को पढ़ते हैं. ये caste सबसे योग्य (नोबेल) इसलिए मानी जाती है क्योंकि इन्हीं विद्वानों के बीच से पुजारी और शास्त्रों को पढने वाले शास्त्री चुने जाते हैं.
दूसरी caste राजपूत या khetris (क्षत्रिय) के नाम से जानी जाती है अर्थात योद्धा और सैनिक. ये अकेले ऐसे मूर्तिपूजक हैं जो बहादुर हैं और शस्त्रविद्या में निपुण हैं. ज्यादातर राजा जिनसे मैंने बात की, वे इसी caste के हैं.
यहाँ छोटी छोटी रियासतों वाले राजा हैं जो आपसी मतभेद की वजह से मुग़लों की छत्रछाया में रहने को मजबूर हैं. लेकिन जो सेवा ये मुग़लों को देते हैं उसके बदले में इनको भरपूर सम्मान और सैलरी दिया जाता है.
ये राजा और उनके संरक्षण में रहने वाले राजपूत ही मुग़ल शक्ति के आधार स्तम्भ हैं. राजा जयसिंह और जसवंत सिंह ने ही औरंगज़ेब को गद्दी पर बैठाया था.
लेकिन यहाँ ये उल्लेख करना भी उचित होगा कि दूसरी caste के समस्त लोग इस शास्त्र व्यवसाय में सन्नद्ध नहीं हैं. वो राजपूत अलग हैं जो घुड़सवार सैनिक के रूप में युद्ध में भाग लेते हैं. लेकिन जहाँ तक khetris (क्षत्रियों) की बात है वे अपने बहादुर पूवजों से निम्न हो चुके हैं और हथियार त्यागकर व्यापार (Merchandise) के क्षेत्र में उतर चुके हैं.
तीसरी caste है बनियों की, जो ट्रेड या व्यापार सँभालते हैं, इन्हीं में से कुछ शर्राफ (Shroff) जो मनी एक्सचैंजिंग या बैंकर का काम करते है. और कुछ लोग ब्रोकर हैं जिनकी एजेंसीज़ के ज़रिये व्यापारी (मर्चेंट्स) खरीद फरोख्त करते हैं.
इस caste के लोग इतने व्यवहारिक (Subtle) और व्यवसाय प्रवीण हैं कि ये धूर्त यहूदियों को भी मात दे सकते हैं. ये अपने बच्चों को बालपन से ही आलस्य से दूर रहने की शिक्षा देते हैं और हमारे बच्चों की तरह आवारागर्दी से रोकते हैं और उनको अंकगणित की मुंहज़बानी शिक्षा इस तरह से देते हैं कि वे कठिन से कठिन सवाल का जवाब चुटकियों में दे देते हैं.
इनके बच्चे हमेशा पिता के साथ रहते हैं और ये अपने बच्चों को व्यापार के साथ उसके गुण और दोष समझाते जाते हैं और काम करते जाते हैं. ये जिस संख्या (figures) का इस्तेमाल करते हैं उसी का प्रयोग पूरे देश में होता है, चाहे जिस भाषा के बोलने वाला हो.
यदि कोई व्यक्ति इनसे नाराज होता है तो ये बिना जवाब दिए धैर्य के साथ सुनते हैं और चुपचाप वहां से खिसक लेते हैं. और चार-पांच दिन बाद जब उस व्यक्ति का गुस्सा शांत हो जाता है तब उससे मिलते हैं.
ये हर उस चीज को अभक्ष्य मानते हैं जिसमे प्राण हों. किसी प्राणी की हत्या करने के बजाय ये स्वयं जान देना पसंद करते हैं. यहाँ तक कि ये कीड़े मकोड़ों की भी हत्या पसंद नहीं करते और ये अपने धर्म के पक्के हैं.
यहाँ ये भी बता दूँ कि ये युद्ध में भाग नहीं लेते, किसी पर हाथ नहीं उठाते. ये किसी राजपूत के घर न खाते हैं, न पानी पीते हैं क्योंकि वे गाय को छोड़कर खाने के लिए जानवरों का वध करते हैं, क्योंकि गाय अवध्य है और कोई उसको खा नहीं सकता.
चौथी caste को Charados या Soudra (शूद्र) कहते हैं, ये राजपूतों की तरह ही युद्ध में भाग लेते हैं लेकिन दोनों में मात्र इतना फर्क है कि राजपूत घुड़सवार योद्धा होते हैं और ये पदाति योद्धा.
दोनों ही युद्ध में जान देने में अपना गौरव समझते हैं. एक योद्धा चाहे वो घुड़सवार हो या फिर पदाति, यदि युद्ध के दौरान मैदान छोड़कर भाग जाता है तो वो हमेशा के लिए अपना सम्मान खो देता है और ये पूरे परिवार के लिए लज्जा का विषय है.
इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाना चाहूँगा जो मुझे इस देश में सुनायी गयी. एक योद्धा जो अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था और बदले में पत्नी अपने पति को उतना ही प्यार करती थी.
ये योद्धा एक युद्ध के दौरान मृत्यु के भयवश नहीं, बल्कि पत्नी के प्रेमवश और उसके विधवा होने के ख्याल से युद्ध भूमि त्याग कर भाग खड़ा होता है. जब ये सूचना उसकी पत्नी के पास पहुंची और उसने अपने पति को घर की तरफ आते देखा तो उसने पति के मुंह पर ही दरवाज़ा बंद कर लिया.
उसने अपने पति से कहा कि वो उस इंसान को पहचानती भी नहीं जिसको अपने सम्मान से ज्यादा अपनी पत्नी प्यारी हो और वो उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती जिसने परिवार की प्रतिष्ठा पर काला धब्बा लगाया हो और ये बात मैं अपने बच्चों को जरूर बताऊँगी कि वो अपने पिता से ज्यादा बहादुर बनें.
वो अपने फैसले पर अडिग रही. अंततः उस योद्धा को अपना सम्मान और पत्नी के प्यार को वापस लाने के लिए युद्ध के मैदान में वापस जाना पड़ा जहाँ उसने अभूतपूर्व शौर्य का परिचय दिया. तब कहीं जाकर उसके घर के दरवाज़े उसके लिए खुले और उसकी पत्नी ने उसका प्यार के साथ स्वागत किया.
अब जो बाकी बचे लोग हैं जो इन चार caste में समाहित नहीं होते उनको PAUZECOUR के नाम से जाना जाता है ये सब मैकेनिकल आर्ट (artisan यानि शिल्प और अन्य उद्योग) का कार्य करते हैं. इनमे आपस में कोई भेद नहीं है सिवा इस बात के कि वे अलग अलग व्यवसाय करते हैं जो इनको अपने पिता से स्वाभाविक रूप से मिलता है.
और एक अन्य बात ये है कि उदाहरण के तौर पर यदि मान लीजिये कोई दरज़ी कितना भी धनवान क्यों न हो, उसको अपने बेटे-बेटियों की शादी उसी के व्यवसाय वाले के परिवार में करना होता है. इसी तरह यदि उस दरज़ी कि मृत्यु होगी तो श्मशान घाट पर जाने वाले लोग भी उसी पेशे के होंगे.
इसके अलावा एक और विशेष caste होती है जिसको ‘हलालखोर’ के नाम से जाना जाता है. जो घरों की सफाई का काम करते हैं और इनको हर घर से महीने में कुछ दिया जाता है, घर के साइज़ के अनुसार.
भारत में समृद्ध वर्ग में चाहे वो मोहम्मडन हों या मूर्तिपूजक, और चाहे उसके पास पचासों नौकर हों, इनमें से कोई भी नौकर झाड़ू लगाने से परहेज़ करता है कि उसको कंटैमिनेशन न हो जाय. अगर आपको किसी की बेइज्जती करनी हो तो उसको ‘हलालखोर’ बोल देना ही पर्याप्त है.
यहाँ ये भी बताना ज़रूरी है कि जिस नौकर को जिस कार्य हेतु रखा गया है वो बस वही काम करेगा. अगर मालिक ने किसी नौकर को किसी अन्य नौकर का काम करने का आदेश दिया तो वो उसको अनसुना कर देगा. लेकिन गुलामों को सब काम करने पड़ते हैं.
ये हलालखोर caste के लोग घरों का कूड़ा उठाते है और इनको जो भी खाने को दिया जाता है उसको खा लेते हैं. मात्र इसी caste के लोग गधों (asses) का इस्तेमाल करते हैं जिसकी मदद से ये घरों का कूड़ा खेतों तक पहुंचाते है.
इनके अलावा गधों को कोई छूता भी नहीं. जबकि पर्शिया में गधो का इस्तेमाल बोझ ढोने में और सवारी ढोने में, दोनों तरह ही प्रयोग किया जाता है. एक अन्य बात ये भी है कि मात्र हलालखोर ही सुअरों को पालने और खाने वाले लोग हैं.”
TRAVELS IN INDIA by Jean-Baptiste Tavernier के फ्रेंच से अनुवादित 1676 एडिशन के पेज 181 – 186 से उद्धृत है ये अनुवाद.
अब कुछ प्रश्न और आशंकाएं :
(1) शूद्र को पदाति सैनिक बता रहा है टेवेर्निएर. कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे भी शूद्र सेना का जिक्र है, जो एक खास अर्थ में ब्राह्मण सेना से श्रेष्ठ बताई जाती है. तो कम से डॉ अंबेडकर का menial जॉब वाला शूद्र तो वो नहीं ही था जिसकी उत्पत्ति की कथा डॉ अंबेडकर ने ऋग्वेद से जोड़कर सुनाई.
(2) सबसे बड़ी बात तो ये है कि टेवेर्निएर के लंबे समय के भारत प्रवास के दौरान उसको डॉ अंबेडकर और पेरियार द्वारा वर्णित 3000 साल से आबादी का 80% अछूत, शूद्र, अतिशूद्र, दलित दिखाई न दिये? जबकि हलालखोर तक का वो बारीक ज़िक्र करता है. जबकि वो मात्र 340 साल पहले आया था.
तो मनुस्मृति तो पता नहीं कब किसने लिखी, लेकिन टेवेर्निएर तो इतिहास का एक अंग है, एक ज़िंदा सबूत.
(3) Pauzecour – एक प्रमुख शब्द है जिसके अंतर्गत artisan आते हैं जो चारों वर्णों के लोगों का एक समूह है, जो अनंत काल से विश्व में भारत की 25% जीडीपी का निर्माता था. अर्थ व्यवस्था नष्ट हुई तो शब्दों की यात्रा मे ये Pariah से होता हुआ Periyar बन जाता है. ज्ञातव्य हो कि Pariah बाइबिल मे वर्णित एक शब्द है जिसका अर्थ समाज से त्यागा, गुलाम बनाया हुआ वर्ग समूह.
ठीक उसी तरह शब्दों की यात्रा मे शूद्र शब्द भी सैनिक आर्टिसन कारकुशीलव से होता हुआ डॉ अंबेडकर से menial जॉब वाला अछूत बन जाता है.
मज़े की बात यह है कि प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रंसिस हैमिल्टन बुचनान भी 1800 में दक्षिण भारत का सर्वेक्षण करते हुए बीसियों समुदायों को शूद्र चिन्हित करता है और लिखता है कि वे देशी राजाओं की सेना के अंग हैं.
तो पेंच क्या है?