फ़िल्म “बाहुबली” का एक बहुत ही प्रसिद्ध सीन जिसने करोड़ों दिलों को जीत लिया था जब बाहुबली देवसेना से कहता है कि “औरत पे हाथ डालने वाले की उँगलियाँ नहीं काटते, काटते हैं उसका गला.” और तत्काल अपराधी सेतुपति जो कि भल्लालदेव का सेनापति था, उसकी गर्दन धड़ से अलग कर देता हैं.
इस इकलौते सीन ने लोगों को तन मन को झकझोर के रख दिया था, तालियों की गड़गड़ाहट से सिनेमा हाल गूँज गया था.
फ़िल्म ही सही लेकिन इस सीन ने लोगों को मुक्ति व न्याय के चरम सीमा की अनुभूति करायी थी.
ऐसी अनुभूति वास्तविक जीवन में नहीं होती. इसीलिए भी ये सीन बहुत प्रसिद्ध हुआ.
लेकिन प्रश्न है कि क्या वास्तविक जीवन में इस पद्धति से न्याय हो सकता है?
याद हो कि सेतुपति की गर्दन काटने से पहले बाहुबली उसे घूरता है, जिससे सेतुपति की ज़ुबान लड़खड़ाती है. तब भल्लालदेव कहता है कि “बाहु, ये क्या व्यवहार है, तुम पीड़ित को धमका रहे हो.”
तब बाहुबली कहता है कि “विनती से सच बाहर नहीं आएगा महाराज.” फिर डराने धमकाने से सच बाहर आता है और अपराधी को दंड मिलता है.
आप किसी चोर को उसकी शक्ल व भावभंगिमा देखकर बता सकते है कि वो चोर है. अपराधी सदैव भयभीत व कुंठित दिखता है.
अक्सर एक झापड़ दो झापड़ में अपराधी अपना अपराध क़ुबूल कर लेते हैं. ख़ासकर बलात्कारी हो तो तुरंत क़ुबूल देगा.
उनमें सहने की क्षमता नहीं होती, कमज़ोरी ही उनसे अपराध करवाती है और कड़ाई करने पर कमज़ोरी ही उनका जुर्म क़ुबूल करवाती है.
यदि ऐसा जुर्म जज के सामने क़ुबूल हो जाए तो तत्काल न्याय हो सकता है.
लेकिन ऐसा होता क्यों नहीं. एक साधारण से चोरी का केस भी कोर्ट में वर्षों चला है. ऐसा क्यों?
वास्तव में वर्तमान दंड विधान में आरोपी को Right to Silence प्राप्त है. माने आरोपी को ख़ुद के ख़िलाफ़ गवाही देने पर मजबूर नहीं किया जा सकता. अर्थात उससे कड़ाई से कुछ भी नहीं क़ुबूल करवाया जा सकता है. आप proof लाइए जो beyond reasonable doubt हो.
अब मान लीजिए किसी ने चोरी की. लोगों ने पकड़ के पुलिस में दे दिया, कड़ाई से पूछताछ होते ही उसने अपना अपराध क़ुबूल लिया, तो होना तो ये चाहिए था कि जज उसके कबूलनामे पर उसे सज़ा दे दे. 2-3 दिन में फ़ैसला हो जाना चाहिए.
लेकिन Right to Silence के होने से वास्तव में होता ये है कि पुलिस के सामने उसकी ख़ुद के ख़िलाफ़ दी हुई गवाही कोर्ट में मान्य नहीं होती. उसे वक़ील लेना होता है और अपना पक्ष कोर्ट में रखना होता है.
वक़ील उसे सिखा देता है कि कितना भी पूछा जाए, बोलना मैंने कुछ नहीं किया. पुलिस ने डरा धमका दिया था, इसीलिए जान छुड़ाने के लिए बोल दिया था. लेकिन मैं बेक़ुसूर हूँ साहब.
तब जज साहब ऑर्डर देते हैं कि आरोपी के ख़िलाफ़ सबूत लाया जाए जो beyond reasonable doubt हो. और ऐसा सबूत खोजे नहीं मिलता. 90% केस में नहीं मिलता.
मौका ए वारदात को यदि सीज़ नहीं किया जाए तो कुछ भी नहीं मिलता. न गवाह मिलता है. तब या तो केस लटक जाता है या सबूतों के अभाव में अपराधी बाइज़्ज़त बरी हो जाता है.
जो अपराधी शुरू में डरा हुआ था और थोड़े कठोर प्रयास से अपराध क़ुबूल सकता था (या क़ुबूल लिया था जिसे मान्य नहीं किया गया), वो अब वो वक़ील द्वारा Right to Silence के प्रति सचेत किए जाने पर ढीठ हो जाता है. उसका भय ख़त्म हो जाता है.
अब भय उस पीड़ित को लग रहा है जो कोर्ट कचहरी में समय व धन की बर्बादी कर रहे हैं आरोपी के ख़िलाफ़ proof beyond reasonable doubt खोजने में जो या तो नष्ट हो गई या चोर द्वारा छोड़ी ही नहीं गई थी.
इसीलिए मोदी सरकार द्वारा गठित जस्टिस मलिमथ कमिटि ने सुझाव दिया कि Right to Silence आरोपी को नहीं दिया जाना चाहिए. जज के सामने आरोपी से पुलिस कठोरता से पूछ ताछ कर सकती है और उसके क़ुबूलनामें के आधार पर उसे सज़ा हो सकती है.
आए दिन लोग मोमबत्ती लेकर बलात्कारी के लिए मृत्यदंड की माँग करते हैं, Right to Silence हटाने की माँग कोई नहीं करता. वो नहीं जानते कि वर्तमान व्यवस्था में जब अपराध साबित ही नहीं कर पाओगे तो मृत्युदंड भी कैसे दोगे?
मालूम हो, संगठित अपराध के ख़ात्मे के उद्देश्य से बनाई गई मकोका के तहत चालान होने पर right to silence छिन जाता है. अभी तक इसमें पकड़े गए अपराधी ने ख़ुद अपना जुर्म क़ुबूल किया व कोर्ट ने तत्काल सज़ा सुनाई. तारीख़ पे तारीख़ मिलने का चक्कर नहीं होता. इसके चलते अंडरवर्ल्ड व दाऊद का साम्राज्य उखाड़ गया और उसे मुंबई छोड़ के भाग जाना पड़ा.
यदि Right to Silence के मामले में मलिमथ कमिटि की शिफ़रिशें लागू कर दी जाएँ तो एक दिन बलात्कारी को भी ये ज़मीन छोड़ के भाग जाना होगा इसमें शंका नहीं है. यदि ऐसा हो जाए तो जो बाहुबली में हुआ, वो हक़ीक़त में भी हुआ करेगा. शायद वो समय बहुत दूर नहीं है.