ऊपर दिखाए गए स्क्रीन शॉट में काफिर कौन है इसपर एक मुसलमान का वक्तव्य है. मैं इस व्याख्या से यहाँ तक सहमत हूँ कि हाँ, इस्लाम की यही व्याख्या है काफिर की.
अब इस व्याख्या की व्यापकता समझते हैं.
इस्लाम की मान्यता है कि मनुष्य को अल्लाह ने बनाया और मनुष्य अल्लाह का गुलाम है.
अल्लाह चाहता है कि मनुष्य केवल उसकी ही पूजा करे, अन्य किसी की पूजा करे तो यह अल्लाह की नज़र में यह गुनाह है.
इसलिए मनुष्य को यह नहीं करना चाहिए वरना अल्लाह सज़ा देगा. मनुष्य से अपनी ही पूजा करवाना अल्लाह का उसपर हक़ है. यह उसकी हक्कानियत होती है.
यह इस्लाम की मान्यता है.
अब यह सरकार ए दो आलम को नबी मानना – ह. मुहम्मद की बात हो रही है. सारे फसाद की जड़ यही है. उनको नबी – रसूल मानने का असली मतलब है इस्लाम और मुसलमान के आगे समर्पण.
जो ह. मुहम्मद ने कहा है उसका ही पालन. अपनी परम्पराओं को, देवी देवताओं को गलत मानना और उनका तिरस्कार करना.
अरब की दिशा में शीश झुकाना और सब से अहम बात, अपनी संपत्ति पर इस्लाम और मुसलमानों का हक़ मानकर ज़कात देना।
यहाँ इस्लाम की खासियत यह भी है कि वह मुसलमान को आज्ञा और अधिकार देता है कि जो यह बात को बताए जाने पर भी न माने उनको वे याने मुसलमान सज़ा दे, उनका दमन कर और वे प्रतिकार करें तो उनकी हत्या कर. मुसलमान की नज़र में यह अल्लाह की आज्ञा का पालन है.
अल्लाह के नाम पर ह. मुहम्मद मुसलमान को आप का दमन, आप को अपमानित कर के आप से दंड वसूलने की आज्ञा देते हैं.
इसमें आप ने प्रतिकार किया तो आप की हत्या करने से उसको कोई पाप नहीं लगता, वो ‘गाज़ी’ बन जाता है, अन्य मुसलमानों से सम्मान का हकदार बनता है. आप के हाथों मारा जाये तो शहीद और जन्नत का हकदार बनता है.
आप ने उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ा तो भी कोई बात नहीं. उन्हें आप की हत्या करने से या आप को लूटने से या आप की स्त्रियों का बलात्कार करने से या उन्हें गुलाम बनाकर बेचने से कोई पाप नहीं लगता.
उनकी नज़र में यह सब कर के भी वे निरपराध है. क्योंकि वे इसे अल्लाह की आज्ञा मानते हैं. कुर’आन पढ़िये, गलत नहीं बोल रहा हूँ. ऑनलाइन है दुनिया की हर भाषा में, मुफ्त मिल जाएगी.
इस्लाम के मुताबिक आप को इस मामले में कोई स्वतन्त्रता नहीं है. अब ज़रा अपने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की दुहाई देनेवाले लिबरल्स और कम्युनिस्टों को पूछिए वे क्या कहना चाहते हैं, और क्या वे इस दमनकारी विचारधारा का विरोध करते हैं या नहीं. और चूंकि वे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ते है, क्या वे आप का साथ देंगे?
यह सवाल तभी पूछना अधिक रोचक होगा जब उनके कोई मुस्लिम मित्र भी उनके साथ होंगे. बंदर को गुलांट देखना मज़ेदार होता है.
वैसे आप को क्या करना है यह आप का निर्णय होगा. सर उठाकर स्वतंत्रता से जीना है या अरबों की मानसिक गुलामी सहते मिट जाना है यह निर्णय आप को लेना है.
और बिना निर्णय लिए आप रह ही नहीं सकते; आप के पास आ गया इस्लाम आप को वो भी स्वतन्त्रता नहीं देता.
तस्मादुत्तिष्ठः!
आज कल महिलाओं तथा युवतियों में इस्लाम को लेकर भ्रांतियाँ बहुत हैं. अगर आप अपनी परिचित भ्रांतिग्रस्त महिलाओं तक इसे पहुंचाएं तो काले तिरपाल की तरफ जाने से वे बच सकती हैं.