सोशल मीडिया, स्लीपर सेल्स, कैंब्रिज एनालिटिका, दुष्प्रचार और भारत-2

पिछले भाग में सोशल मीडिया के बारे में लिखा था, कैसे सोशल मीडिया भारत को बदल रहा था. लेकिन वहीं एक सवाल भी उठाया था कि क्या सब कुछ अच्छा ही अच्छा था? कहीं कुछ घटित तो नहीं हो रहा था?

इसका जवाब थोड़ा आगे मिलेगा, उससे पहले एक अन्य महत्वपूर्ण कांसेप्ट को समझते हैं… स्लीपर सेल.

स्लीपर सेल जैसा कि नाम से ही प्रतीत हो रहा है, कि सोने/ निद्रा से सम्बंधित कुछ होगा. एक ऐसी सेल जो स्लीप मोड में हो.

सेल का साधारण अर्थ होता है एक यूनिट, एक यूनिट जो किसी काम को करने के लिए बनायी जाती है.

जैसे कि हमारा शरीर ही देख लीजिये, सेल हमारे शरीर की एक बेसिक यूनिट है, और अरबों खरबों यूनिट्स से मिल कर ही हमारा शरीर बना है.

हर यूनिट/ सेल का एक कार्य होता है, उस कार्य को पूरा करने के लिए उस सेल को शक्ति की जरूरत होती है. जो उसे हमारे भोजन से मिल जाती है.

[सोशल मीडिया, स्लीपर सेल्स, कैंब्रिज एनालिटिका, दुष्प्रचार और भारत-1]

स्लीपर सेल की जो अभी तक की अवधारणा है, वो कुछ लोगों का ग्रुप, जो किसी ख़ास काम के लिए अस्तित्व में आया हुआ होता है.

कुछ समय पहले एक फिल्म आयी थी, हॉलिडे जिसमें अक्षय कुमार एक आर्मी अफसर होते हैं और वो अपने साथियो के साथ मिल कर एक पाकिस्तानी स्लीपर सेल का खात्मा करते हैं. फिल्म काफी अच्छी थी और लोगो को पसंद भी आयी.

लोगों के मन में स्लीपर सेल की एक छवि बन गयी कि कुछ लोग होते होंगे, पाकिस्तान से उनका आका आर्डर देता होगा, फिर वो लोकल लोगो की मदद से अपने कार्यो को करते होंगे. कार्य मतलब? बम ब्लास्ट करना आदि आदि… फिल्म में यही दिखाया गया.

लेकिन क्या स्लीपर सेल का यही काम होता है? क्या स्लीपर सेल में मल्टीपल लोग होने ज़रूरी हैं? क्या अकेला इंसान स्लीपर सेल नहीं हो सकता? क्या स्लीपर सेल्स केवल बम विस्फोट करने का ही काम करती हैं? क्या स्लीपर सेल्स लोकल लेवल पर ही होती हैं या इनका दायरा अंतर्राष्ट्रीय भी होता है?

चलिए पता करते हैं.

कुछ उदाहरणों से शुरुआत करते हैं… याद करिये कुछ साल पहले तमिलनाडु में कुडनकुलम पावर प्लांट को लेकर काफी बवाल हुआ था…

उदयकुमार नामक एक व्यक्ति थे जो अपनी NGO चलाते थे, उन्होंने जबरदस्त प्रोटेस्ट आयोजित किये. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को इस प्रायोजित प्रोटेस्ट के खिलाफ बयान देना पड़ा.

इसका एकमात्र उद्देश्य था इस महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट को बीच में ही रोक देना. ये प्रोजेक्ट रूस ली सहायता से बन रहा था और अमेरिका नहीं चाहता था कि यह कमीशन हो जाए, सो थोड़ा सा पैसा फेंका और पूरे तमिलनाडु को अस्त व्यस्त कर दिया.

पिछले ही साल एक और ऐसा ही प्रोटेस्ट हुआ था तमिलनाडु के किसानों का. जिसमें बड़े अजीब तरीके अपनाये गए थे. इन प्रोटेस्ट्स को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उछाला गया.

हालांकि बाद में एक्सपोज़ हुआ और पता लगा कि इसके पीछे भी कई बड़े NGO का हाथ था और मीडिया उन्हें चुपके चुपके सपोर्ट कर रहा था. ग्रेटर नॉएडा के गाँवों में मानव नरमुंड के साथ कथित किसानों का फोटोशूट कैसे कोई भूल सकता है भला?

अगला उदाहरण है मोदी सरकार के बनने के तुरंत ही बाद कम्युनल घटनाएं एकदम से लाइमलाइट में आने लगी. कभी गुजरात में दलित पर अटैक, दिल्ली में चर्च पर अटैक, बंगाल में नन्स के साथ रेप, दादरी में अख़लाक़ काण्ड, अलवर का काण्ड आदि.

अनेको ऐसे काण्ड हुए, ऐसा नहीं था कि भारत में ये पहले नहीं होता था, पहले भी होता रहा, जो कि गलत था. लेकिन पिछले 3-4 साल में एक ट्रेंड दिख रहा है कि एकदम से कोई घटना उभर कर सामने आ जाती है और फिर सारा मीडिया उस पर कई दिनों तक बवाल काटता है. सारे मुख्य मुद्दे गायब हो जाते हैं और हम सब इन्ही बातों में उलझ कर रह जाते हैं.

आप अगर एनालिसिस करेंगे तो पाएंगे कि एकदम से ही सारी स्लीपर सेल्स एक्टिव हो जाती हैं. इन लोगों के पॉइंट ऑफ़ कॉन्टेक्ट्स जो मीडिया, जुडिशरी, एडमिनिस्ट्रेशन, इंटरनेशनल मीडिया, फिल्म इंडस्ट्री, यूनिवर्सिटीज में होते हैं, वो एक दम से एक्टिव हो जाते हैं.

रोहित वेमुला आत्महत्या कर लेता है, और दूसरे ही दिन आपको रवीश कुमार प्राइम टाइम में उसका मुद्दा लिए मिल जाएंगे. एक दम से सभी यूनिवर्सिटीज़ में रोहित वेमुला ही एकमात्र मुद्दा रह गया.

फिल्म इंडस्ट्री का कोई कलाकार भी अपनी फिल्म का प्रमोशन करने जाता था तो रोहित वेमुला पर ही मीडिया उससे सवाल पूछती थी. और एक नया ही माहौल बनाया असहिष्णुता के नाम पर. हर तरफ आपको यही शब्द सुनाई देता था.

सैकड़ों PIL फाइल कर दी गयी, सरकार को असहिष्णु बताया गया. वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबारों में यह मुद्दे पहले पेज पर छापे जाते थे. कभी सोचा है क्यों?

जैसे मैंने शुरू में कहा था कि हमारे शरीर कि बेसिक यूनिट होती है सेल. यहाँ इन स्लीपर सेल के नेटवर्क की बेसिक यूनिट होता है एक कलाकार, एक मीडिया पर्सनालिटी, एक वकील, जज, अंतर्राष्ट्रीय पर्सनालिटी, यूनाइटेड नेशन का चीफ और कुछ भी.

आपको पता है कि कम्युनल घटनाओं के मुद्दे पर इंग्लैंड की UK रॉयल सोसाइटी और अमेरिका की US नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंस तक ने भारतीय सरकार की आलोचना की और उसे असहिष्णु बताया?

ऐसे लोगो के कमेंट करने से प्रोपेगंडा में वजन आता है. कठुआ के आसिफा केस में यूनाइटेड नेशन चीफ का बयान आया है… बिना किसी शक यह एक दुर्दांत घटना थी और इस पर हर कोई अपना दुःख और गुस्सा प्रकट कर रहा है. भारत की सरकार और राज्य की सरकार इन मुद्दों से निबटने में सक्षम हैं, लेकिन इन मुद्दों को यूनाइटेड नेशन तक ले कौन गया… कभी सोचा है?

पिछले 1-2 सालों में अगर आप स्वयं देखें तो एक दम से सभी हिन्दू त्योहारों के खिलाफ धड़ाधड़ याचिकाएं दायर होने लगी. किसी को दही हांडी की ऊंचाई से दिक्कत थी, किसी को जल्लिकट्टु में बैल से सहानुभूति थी, किसी को स्कूलों में प्रार्थनाओ में ॐ के उच्चारण से दिक्कत होने लगी, तो किसी को योग से ही एलर्जी हो गयी.

सैकड़ों PIL सुप्रीम कोर्ट और राज्यों के कोर्ट्स में डाली गयी. एक ख़ास विचारधारा को चोट पहुंचाने का काम हुआ. आप अगर याद करेंगे तो आपको समझ आएगा कि यह खेल कैसे खेला गया. मीडिया में एक नकारात्मकता फैलाई गयी, साथ ही साथ विदेशी चैनल्स पर ये मुद्दे छाये रहे, जिसका कोई औचित्य नहीं दीखता था, लेकिन ऐसा हुआ.

यही स्लीपर सेल्स एक्टिव हो जाती हैं जब भारतीय राष्ट्रपति, आतंकी याकूब मेमन की फांसी की सजा को अनुमति दे देते हैं. रात में 3 बजे सुप्रीम कोर्ट खुलवाया जाता है ताकि एक आतंकवादी जिसने सैकड़ों लोगों की जान लेने का काम किया उस पर थोड़ी दरियादिली दिखाई जा सके.

यह स्लीपर सेल्स ही होती हैं जो माफिया डॉन और दुर्दांत अपराधियों को महिमामंडित करने वाली फिल्में बनाते हैं. उनकी छवि को सुधारने का काम भी करते हैं. दाउद इब्राहिम को एक chocolaty बॉय की तरह दिखाया जाता है, एक नैरेटिव सेट किया जाता है कि बेचारा अच्छा इंसान है, समय ने उसको गलत रास्ते पर धकेल दिया.

इनकी कार्यप्रणाली इतनी ज़बरदस्त होती है कि आम जनता तो बेचारी समझ ही नहीं पाती कि हो क्या रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण है कि संचार के साधनों पर इनका एकछत्र राज. टीवी, फिल्में, मैगज़ीन्स, अखबार, यूनिवर्सिटी आप जहां देखेंगे आप इन्हे पाएंगे. इन्हे बस पैसा चाहिए और ये आपके लिए नैरेटिव बना देंगे और उसको चला भी देंगे.

जब इन्हे लगता है कि कोई खबर इनके प्रोपेगंडा को धवस्त कर रही है, तो यह उस खबर को ही गायब कर देते हैं, अगले भाग में इस बारे में भी जानकारी दूंगा.

तो कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि स्लीपर सेल का काम मात्र आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना नहीं होता, इनका काम होता है नैरेटिव बनाना, लोगों के मन में ज़हर घोलना, किसी विचारधारा/ धर्म/ व्यक्ति के प्रति नकारात्मकता बढ़ाना, देश के विकास को येन-केन-प्रकारेण बाधित करना, धार्मिक मान्यताओं पर चोट करना आदि.

जब सोशल मीडिया आया तो लगा कि एक नया अल्टरनेटिव आया है. शुरू शुरू में सोशल मीडिया पर मेनस्ट्रीम की खबरों को काटना शुरू किया. लोग खुश थे कि अब मेनस्ट्रीम मीडिया के फैलाये मायाजाल को शायद सोशल मीडिया काट सकेगा…

इन स्लीपर सेल्स को सोशल मीडिया शायद ख़त्म कर देगा… जैसे अक्षय कुमार ने किया था हॉलिडे में… लेकिन धीरे धीरे यह उम्मीद भी ख़त्म हो गयी… दुःख की बात है लेकिन सत्य यही है.

सोशल मीडिया से यह स्लीपर सेल्स का नेटवर्क ख़त्म होने के बजाय और भी ज्यादा व्यापक हो गया है. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि अब हम लोग भी इसी स्लीपर सेल का एक हिस्सा बन चुके हैं. वो एक खबर प्लांट करते हैं, और हम कमेंट शेयर like कर कर के उस खबर को हज़ारों गुना ज्यादा व्यापकता से फैला देते हैं.

लोगों में अब सोशल मीडिया पर रहने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गयी है, टीवी के चैनल्स अब कोई देखता नहीं, और सोशल मीडिया पर जो भी मिलता है उसको हम बिना उसकी जांच परख किये फैला देते हैं.

कोई गलत तथ्य और खबर जब हमारे द्वारा हमारे दोस्त और परिवार जनों तक पहुँचती है तो उसका प्रभाव कहीं अधिक होता है. उदाहरण के लिए अगर मैं कुछ पोस्ट करता हूँ तो मेरे दोस्त उस पर ज्यादा विश्वास करेंगे बजाये किसी अकबकाये से पत्रकार के जो हर रात मुँह फुला कर प्राइम टाइम प्रस्तुत करता है.

आप जो भी लिखते हैं, जो भी शेयर करते हैं या like करते हैं, उसका पूरा रिकॉर्ड रखा जाता है और उसको समय आने पर इस्तेमाल भी किया जाता है.

अभी 2 दिन पहले ही मेरे एक दोस्त ने कहा कि पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर मात्र नेगेटिविटी ही दिख रही है, कुछ अच्छा नहीं हो रहा क्या भारत में?

उसका उत्तर यही है कि जो बिकता है वही दिखता है. अभी माहौल ग़मगीन है, गुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं, जज बने बैठे हैं, रोजाना फैसला सुना देते हैं.

अब यह सोशल मीडिया पर नेगेटिविटी फैलाने वाला कौन है? लोगो का परसेप्शन बदलने वाला कौन है? यह हम लोग ही हैं, जो एक अनजान खिलाड़ी के हाथों की कठपुतलियां बन कर ही रह गए हैं.

कौन है वो खिलाड़ी और कैसे हमारे विचारों को ही हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है… कैसे सोशल मीडिया पर माहौल बनाया जाता है? इन सब बातों के जवाब अगले भाग में…

क्रमश:…

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