इन दिनों डूब जाने की बात,
एजेंडा क्रांतिपथ पर है!
रोज़ ही न जाने कितने लोग कर रहे
घोषणा!
हम “इंसान” होने पर शर्मिंदा है,
हम ……… होने पर शर्मिंदा हैं,
हम हिन्दू होने पर शर्मिंदा हैं,
हम मंदिर जाने पर शर्मिंदा हैं,
हम सांस लेने पर शर्मिंदा हैं.
हमारा दिल धड़क रहा है,
इस बलात्कारी हवा में,
इसलिए हम शर्मिंदा हैं.
मगर आज तक हम इस सुर्खी के लिए तरस रहे हैं,
“शर्मिंदा था बहुत एक लेखक,
तो उसने अकादमी से मिले इनाम की राशि,
को उस बच्ची की याद में दान कर दिया,
रात को खाने पीने के एक्स्ट्रा बजट में,
शर्मिन्दगी से कटौती कर दी,
रोजाना की सिगरेट से कर ली कटौती और
शर्मिंदगी के चलते उसने कुछ गरीब बच्चों की
फटी जेबें सिलाकर उनमें टॉफ़ी की भर दी मिठास!
वो जो पहनता है छह और आठ हज़ार की जैकेट,
पॉश इलाके में रहने वाले उस लेखक ने
अपनी एक जैकेट किसी ठिठुरती पीठ को दे दी!”
दरअसल हमारे यहाँ शर्मिंदगी का बाज़ार बहुत कमाऊ है!
एक दिन एक शर्मिंदा होता है,
दूसरे दिन बौद्धिक विलासिता के दरवाजे अपने लिए खोल लेता है!
एक दिन मैडम शर्मिंदा होती हैं,
अगले दिन आंदोलन के नफा नुकसान की बात करती हैं!
एजेंडा क्रांतिपथ पर अभी भी
कान सुनना चाहते हैं,
शर्मिंदगी के अहसास ने एजेंडाकृत क्रांति के स्थान पर
और क्या किया!
पर क्या करें!
या तो कानों की श्रवण क्षमता दुर्बल है या फिर….
– सोनाली मिश्र