कहाँ मोमबत्ती लेकर घूम रहे हो भैया, जाके आइने में देखो अपनी शक्ल

उन्नाव व कठुआ में नाबालिग़ बच्चियों से बलात्कार की जघन्य घटनाओं पर ख़ून में उबाल देखा जा रहा है.

उबाल आना चाहिए. लेकिन ये उबाल पहले भी आता रहा है, जब मीडिया boil button ON करती है तो ये उबाल झाग की तरह ऊपर आता है और थोड़े ही पल में बैठ जाता है.

NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2016 में रेप एवं रेप के प्रयास की लगभग एक लाख (1,00,000) से ज़्यादा घटनाएँ हुई.

अर्थात प्रति 5 मिनट पर एक रेप की घटना. तो इस प्रकार से ये ख़ून प्रति 5 मिनट में उबाल लेना चाहिए था. चलिए प्रत्येक 5 मिनट न सही, दिन में एक बार, नहीं तो हफ़्ते में एक बार.

लेकिन ऐसा चुनिंदा मौक़ों पर ही होता है, वो भी तब जब प्राइवट लिमिटेड मीडिया boil button ON करती है, जब उन्हें शुभ मुहूर्त में political client से ऑर्डर प्राप्त होता है और बदले में मुनाफ़ा.

यदि कोई वाक़ई समाधान के प्रति गम्भीर हैं तो वो पुलिस तंत्र व न्याय प्रक्रिया की ख़ामियों पर बात क्यों नहीं करता जिसमें अपराधियों में व्यवस्था का कोई खौफ़ नहीं है, एक बलात्कार का केस वर्षों तक चलता है, वादी प्रतिवादी दोनों मर जाते हैं, फ़ैसला नहीं आता?

प्रश्न होना चाहिए कि आख़िर क्यों रेप के आरोपी से पुलिस या कोर्ट रूम में जज के समक्ष कड़ाई (inquisitorial system) से पूछताछ नहीं की जा सकती? रेप केसों के निपटारे की समय सीमा क्यों नहीं तय की जा सकती?

क्यों ये प्रश्न नहीं होता कि न्याय प्रक्रिया को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाले दस्तावेज़ यानी घटना की विवेचना एक अतिभ्रष्ट प्रक्रिया से चुना हुआ थर्ड क्लास इंस्पेक्टर क्यों करता है?

इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी पॉलिटिकल तंत्र के अधीन आने वाली लॉ और ऑर्डर एजेंसी से पृथक क्यों नहीं हैं, कम्प्लेन व FIR लिखने के लिए पुलिस से स्वतंत्र कोई अलग निकाय क्यों नहीं है? क्या लॉ एंड ऑर्डर विंग कम्प्लेन लिखकर अपनी परफोर्मेंस डाउन करेगा?

इन प्रश्नों को लेकर सरकार को घेरो, तब समझ आता है. लेकिन आपकी भाड़े की पत्रकारिता केवल पार्टी को घेरती है, सरकार नहीं घेरती.

लंठों में लंठ रविश कुमार कठुआ कांड से काफ़ी आहत है, कठुआ कांड में बलात्कारी व पीड़ित का सम्प्रदाय तय कर रहे हैं, लेकिन दिल्ली में निर्भया कांड व बुलन्दशहर गैंग रेप में सम्प्रदाय तय करना भूल गए थे. यानी इससे ज़्यादा बेहूदा पत्रकार खोजे नहीं मिलेगा.

वास्तव में इन्हें समाधान नहीं चाहिए. ये चाहते हैं कि इनका नंगा नाच ऐसे ही चलता रहे और नादान भीड़ इनके शो पर पैसे लुटाती रहे. यही इनका जीने खाने का साधन है.

दौलत की हवस इतनी कि आजकल रेप की घटनाओं का नाट्य रूपांतरण भी मीडिया उपलब्ध करा रही है, ओरज़िनल मिल जाए तो वो भी चला रही है, ताकि भीड़ को ‘सत्य’ से अवगत कराया जा सके, इसके बाद से TRP में ख़ासा इज़ाफ़ा देखा गया है.

ख़ैर, उपरोक्त जितने पुलिस व न्यायिक तंत्र में सुधार के बिंदु मैंने लिखे, उनमें से ज्यादातर मलिमथ समिति की रिपोर्ट के बिंदु है. 80% लोगों को, जिनका ख़ून उबाल मार रहा है, मलिमथ कमिटि क्या है, पता भी नहीं होगा.

सिस्टम में क्या रिफॉर्म चाहिए और कौन इस दिशा में क्या कर रहा है, उन्हें नहीं पता. क्या सच है, क्या झूठ है, उन्हें कुछ नहीं पता. वो तो बस एक कठपुतली हैं जिनका कंट्रोल मीडिया के पास है.

वर्षों पहले महाराष्ट्र में मकोका लागू हुआ था, उसके बाद वहाँ संगठित अपराध उखड़ गया. सिस्टम में सुधार इसे कहते हैं. वोट देना तभी सफल होता है.

ऐसे ही रेप सहित अन्य अपराधों के नियंत्रण व त्वरित न्याय के लिए 2003 में अटल सरकार ने मलिमथ कमिटि का गठन किया था. बाद में न सरकार रही, न सुधार हुआ.

पुनः 2014 में मोदी सरकार का गठन होने के बाद मलिमथ कमिटि पुनः सक्रिय की गई, जिसने क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार के लिए 4-5 माह पूर्व अपनी रिपोर्ट सौंपी हैं.

बुरा लगे या भला, लेकिन ऐसे जितने भी जघन्य बलात्कार हैं, उनका पाप सबके माथे हैं. कहाँ मोमबत्ती लेकर घूम रहे हो भईया. जाके आइना देखो शीशे में. आप ही हो ज़िम्मेदार. क्योंकि ये आप ही थे जिसके वजह से मलिमथ कमिटि के रिफॉर्म आजतक लागू न हो सके.

आज पुनः मलिमथ कमिटि ने मेहनत की, सही दिशा में काम आगे बढ़ा है, लेकिन आपका पानी जैसा ख़ून फिर उबल रहा है, फेर दो पानी. आप दिशाहीन हो, आप अधीर हो. आप ही ज़िम्मेदार हो.

कोई भगवान इस धरती पर नहीं आने वाला, जो होगा राजनैतिक इच्छाशक्ति से होगा, करने वाला भी आदमी होगा. विवेक, बुद्धि, जानकारी दुरुस्त रखिए. लोकतंत्र को भेड़ तंत्र मत बनाइए.

लोकतंत्र में अंतिम ज़िम्मेदारी जनता की ही होती है.

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