देह का व्यापार हो
गलियों की मद्धिम बत्ती में हो रही हो खरीद फरोख्त
घर का बिस्तर हो
रसोई के धुंए में जलाई जा रही हो देह
जात और धर्म की बात न करें
सरकार! हमें औरतों में गिनें
बलात्कार वाली लड़कियों की खुली आँख में एक सा भय है
आप यकीन करें
कोई ब्राह्मण लड़की कोई दलित लड़की की आँख के भय से उसका डीएनए टेस्ट करवा लें
दोनों बराबर चीखती हैं
दोनों की आँख से ठीक काजल वाली जगह खून की पतली रेखा चल निकलती है
इनकी छातियों पर लगे नाख़ून एक से हैं
इनकी देह में घुसेड़ कर डाली गई लोहे की रॉड ने पहले इनकी आत्मा को मारा फिर देह मरी
आप यकीन जाने जिल्लेईलाही
ये किसी देश किसी सरहद किसी राज्य की अलग अलग नहीं है
ये सब औरतें हैं
हमारी गिनती औरतों में करें
हमारी गिनती उन लड़कियों में करें
जो गर्भ में मारी गई
जो जन्मी तो पटक दी गई
जो बड़ी हुई न हुई
हवस के काम आई
जो बेच दी गई
जो रोज नए बिस्तर पर लाश सी नुचवती रही देह
इनके मुँह पर फेंका हुआ पैसा
आपके वोट बैंक से ज़्यादा है
आप गिनती करा लें
सरकार! इसी सदी में हम बड़े कर रहे अपने बच्चों को
इसी समाज के डरावने दलदल में वो कल काम पे जायेंगे
वो अख़बार नहीं पढ़ेंगे
वो नही जानना चाहेंगे सच
उनकी सुबह क्यों भला कालिख से हो भरी
जब रोज ही एक औरत पेड़ से बाँध मारी जा रही
उन्हें इस तमाशे का हिस्सेदार नहीं बनना
हम उन्हें मजबूरन मुँह फेरना और कम सम्वेदनशील बनाएंगे
हम डरे हुए देश की काली पड़ रही धरती पर मुँह पर पट्टी बांधे रोज बलात्कार करवा रहे
रोज कोई सुनवाई नहीं हो रही
रोज परिवार लकड़ियों पर सवार आसमान की सवारी कर रहा
ये दर्द साझे का है
इसे अलग क्यों करना
हर चीख के साथ हम नींद से उठ जाते हैं
देह होनी चाहिए
आप बाजार लगा कर देख लें
ये समय के सबसे घटिया खरीदारों का समय है
ये सेम की फली की तरह देह तोड़ कर देखते हैं
इन्हें कुछ नहीं लेना देना
किस खेत की फसल है
ये निर्मम हत्यारों का समाज बनता जा राजनीति का क्या सं अपनी ताकत भुनवा रहा
सब बहती गंगा में धो रहे हाथ
वो जो आज बलात्कार के खिलाफ नारे दे रहा
पिछली रात उसने सगी बेटी की बोटियाँ खाई
हिंसा लूट बिक्री बलात्कार और बाजार में
हम नंगी खड़ी औरतें
किसी दुर्गा का रूप नहीं
आपके समाज का आईना हैं
ज़्यादा देर नहीं
ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं
इन चीखों में शामिल हो जायेगी आपके अपनों की चीख
न्याय की सीढ़ियों पर खड़ा हर इंसान कातिल होगा
पर्चियों के नारे नंगी औरतों का तन नहीं ढकेंगे
शर्मिंदा हवा आग बन जानी चाहिए ऐसे मुल्क में
औरतें एक साथ बगावत कर दें
लड़कियों के हाथ में रेत देने वाले हथियार हों
ये खुद हों जज खुद वकील
खुद सुना दे सज़ा
इन्हें पूरा हक़ हो
आम अदालत में ये न पहने काला कोट
ये लाल आँख तेज ज़ुबान से आजीवन मौत की सजा सुनाये
जिनमे अपराधी हों इनके अपनेे पिता भाई चाचा
और हर वो आदमी जो कभी इंसान न बन सका
हमारी पूरी कौम की गिनती औरतों में की जाय
हम एक साथ अपनी देह को मिट्टी होता देख रहीं
हम एक स्वर विलाप रहीं इस धरती के इस बलात्कारी युग में
हमें एक साथ रखा जाय हर सुख दुःख में
हमारी देह का बाजार है रंग धर्म जात के अलग अलग बिस्तर नही
इसे कविता नही आधी आबादी की नाराजगी डर खौफ की तरह दर्ज किया जाय…..
– शैलजा पाठक