‘ये’ जानते ही नहीं, ‘उनके’ मुताबिक़ दलित-वेदना का एकमात्र हल है इस्लाम की गोद में आ जाना

आज से करीब साढ़े चौदह सौ साल पहले अरब के गिर्द दो बड़ी शक्तियाँ मौजूद थीं. एक था फ़ारस और दूसरा रोम.

अरब के मशरिकी हिस्से पर फ़ारस का साम्राज्य कायम था और उसके शिमाली इलाके पर रोमनों का कब्ज़ा था.

ये दो बड़ी शक्तियाँ आपस में युद्धरत रहा करती थी और इसी क्रम में ईसवी सन 614 से ही रोम और फ़ारस के दरमियान जंग छिड़ा हुई थी.

छुटपुट झगड़ों के बाद ईसवी सन 696 में फ़ारस ने रोमनों को रौंद दिया और इस युद्ध में रोम वालों के परखच्चे उड़ गये.

रोम वालों के गम में शरीक होने वाले अरब के नये-नये मतांतरित हुये लोग भी थे. अरब के बाकी लोगों को ताअज्जुब हुआ कि भाई! जिस मुल्क के साथ हमारा कोई ताअल्लुक नहीं उसकी पराजय पर यहाँ मातम और स्यापा क्यों?

तो बताया गया कि चूँकि रोम वाले ईसाई हैं यानि अहले-किताब हैं यानि नबियों और आसमानी किताबों पर यकीन रखने वाले भाई हैं और हमारे किताब के अनुसार दोस्ती में हमारे सबसे करीब हैं उधर वो फ़ारस वाले मज़ूस हैं, अग्नि पूजक हैं, काफ़िर है तो उनके हाथों हमारे अहले-किताब की पराजय पर हमें रंज तो होगा ही.

इस खबर जब रोमनों को मिली तो बड़े भावुक हो गये कि ये अरब के नये दीन वाले हमारे कितने अज़ीज़ हैं और हमारे लिये कितने फिक्रमंद हैं.

इस पराजय के पश्चात रोमनों की हालत इतनी पस्त हो गई थी कि वो अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ पिघला कर अपनी अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने में लगे थे यानि उनके खजाने खाली थे और इस कारण सेना के अंदर से बगावत की आवाजें उठ रही थी.

इन्हीं हालात में आसमानी किताब के मार्फ़त कहलवाया गया कि रुमियों की जल्दी ही फतह होने वाली है और इस पराजय के नौ साल बाद ही रोम और फारस में फिर से युद्ध हुआ और अबकी बार रोमन जीत गये.

अरब के नव-मतांतरित ने जबरदस्त जश्न मनाया कि आज अल्लाह ने “बे-किताबियों” पर हम “किताब वालों” को ग़ालिब किया.

यहाँ तक तो सब ठीक था, बड़ा अच्छा भी चल रहा था. रोमन बड़े मुतमईन थे कि अरब में उभरती एक नई ताकत आज उनके खैर-ख्वाहों में से हैं अब कोई दिक्कत नहीं है.

तभी एक घटना घटी. अरब पर काबिज़ हुये नये मज़हब वालों ने फ़ारस और रोम दोनों के बादशाहों को दावती ख़त भेज दिये.

रोमन सम्राट ने दीन की दावत तो कबूल न की पर क़ासिद (पत्रवाहक) का सम्मान किया, उधर फ़ारस वाले बादशाह खुसरो परवेज़ ने दावती ख़त के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और क़ासिद को धक्के मारकर दरबार से निकाल दिया.

हालांकि रोम वालों को समझ नहीं आया कि खैर-ख्वाही के बदले दीन बदलने का ऑफर क्यों है?

खैर पहले ख़त के इंकार के बाद हिजरी के आठवें साल में फिर से रोम के सम्राट को दावती ख़त भेजा गया. रोमन अब इस हिमाकत से चिढ़ने लगे थे इसलिये ख़त ले जाने वाले कासिद को क़त्ल कर दिया.

ये खबर जब अरब पहुँची तो लश्कर तैयार करने का हुक्म दे दिया गया और हज़रत ज़ैद बिन हारिसा की मातहती में एक लश्कर भेजा गया कि इन रुमियों को सबक सिखाओ.

सीरिया के एक मुकाम पर सन 8 हिजरी में एक जंग हुई जिसे तारीख में जंगे-मुता के नाम से जाना जाता है और इस युद्ध में अहले-किताब कहकर रुमियों की बलाएँ लेने वालों ने ही उन अहले-किताबों को गाजर-मूली की काट डाला. दीन की दावत का इंकार इतना महंगा पड़ेगा ये रुमियों से कल्पना से परे बात थी.

ये यहीं तक नहीं है, फ़तह-मक्का के बाद तबूक की ओर फौजकुशी की गई ताकि रूमी खौफज़दा होकर दीन में आ जायें.

उसके बाद ऐलान किया गया कि किसरा (फारस का बादशाह) और कैसर (रोमन सम्राट) दोनों हलाक होंगें और दोनों के खजाने मुसलामानों के हाथ से खर्च किये जायेंगे.

किसरा और कैसर हलाक भी किये गये, उनके खज़ाने भी लूटे गये और उनकी बेटियां और पत्नियाँ माले-गनीमत में तक्सीम हुई.

बीती दो अप्रैल के भारत बंद में जो भीम वालों के लिये जो उनकी मुहब्बत देखने को मिली उसके बाद मुझे ये सारा घटनाक्रम सिलसिलेवार ढ़ंग से याद आ गया.

भीम वालों के लिये उनकी मीम की फ़िक्र वही है जो फ़िक्र तब के नव-मतांतरित अरबों की “अहले-किताब” वालों के लिये थी.

भीम वालों को भी जब रुमियों की तरह इस एहसान के एवज में दावती खुतूत मिलेंगे और बार-बार मिलेंगे तब इन्हें इस मुहब्बत का सबब समझ में आयेगा.

भीम वालों को नहीं पता कि उनके आराध्य बाबासाहेब की अहमियत उनके यहाँ केवल एक काफ़िर की है जिसे जर्रा भर भी सम्मान नहीं मिलने वाला.

आप आज यहाँ पुजारी तो बनाये जा रहे हो पर वहां आज तक किसी गैर-अरब, किसी गैर-क़ुरैश को हरमैन-शरीफैन की इमामत का सर्फ़ हासिल नहीं हुआ है. ‘जय भीम’ का नारा तो खैर कुफ़्र की श्रेणी में रखा ही जायेगा.

आपको ये नहीं पता कि नवाब विकार-उल-मुल्क ने 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में आपके लिये कहा था कि हम और हिन्दू, दलितों को आपस में आधी-आधी बाँट लेंगें यानि दलित उनके लिये कोई माल है जिसे मौका पाते ही तक्सीम कर लेना है.

आप भीम वालों ने शायद जमाते-इस्लामी का साहित्य नहीं खंगाला है जिसके अनुसार दलित-वेदना का एकमात्र समाधान इस्लाम की गोद में आ जाना है.

वो “भीम वाला” हो या “मनु वाला”, तारीख (इतिहास) समझाने में किसी के साथ भेदभाव नहीं करता. आप अहले-किताब हैं कि बे-किताब हैं, आप ब्राह्मण है कि दलित हैं, आप लाल झंडे वाले हैं कि भगवा झंडे वाले हैं, आप सपाई हैं कि भाजपाई हैं वहां इसकी अहमियत नहीं है.

अहमियत सिर्फ इस बात की है कि आप दावत कबूल कर रहे हैं कि नहीं कर रहे. अगर हाँ तो आपका खैर-मकदम और अगर नहीं तो किसरा और कैसर का नसीब आपका मुकद्दर होगा.

बाकी इस कीमत पर किसी को मुहब्बत करनी हो तो करता रहे… मुहब्बत करने वालों को रोका किसने है…

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