एक रेगिस्तानी कबीला देखते ही देखते ही साम्राज्य बन गया और खुद को अल्लाह का दूत बताने वाले वाला एक महत्त्वाकांक्षी कबाइली सुल्तान बन गया.
ना अल्लाह ने कोई भूमिका निभाई और ना नबी ने.
केंद्रीय भूमिका उसी किस्म की मोलभाव, क्षुद्र तात्कालिक हित देखने वाले मानवीय स्वभाव ने निभाई जो ऐसे भस्मासुर पैदा करता है जो आपको ही निगलने वाले हैं.
हमेशा से ऐसा होता आया है और होता रहेगा. इसी को देखकर किसी ने March of Folly लिखी.
लब्बोलुबाब ये कि हर राष्ट्र, समाज और राजा जानता है कि तात्कालिक फायदे के लिए वह जो कर रहा है, वह आगे चलकर उसी के लिए संकट बनेगा.
फिर भी तात्कालिक ज़रूरतों के तकाज़े ऐसे होते हैं कि वह सोचता है कि आगे आने वाली तबाही से आगे निपटेंगे.
पर ऐसा होता नहीं मित्रों… अधिकतर ऐसा होता है कि भस्मासुर आपको ही निगल लेते हैं.
तो रोम और फारस, दोनों ने इस्लाम में अपना फायदा देखा.
फारस ने सोचा कि ये नई उभरी ताकत रोम के खिलाफ इस्तेमाल के लिए फायदेमंद होगी तो रोम का भी यही सोचना था.
पर नई ताकत ने दोनों का इस्तेमाल एक दूसरे के खिलाफ किया और दोनों को उखाड़ कर फेंक दिया. बिल्लियों के झगड़े में बंदर का भला.
हमारे जयचंदों, आनंदपालों ने भी यही सोचा कि ये नई ताकत हमारे लिए फायदेमंद हो सकती है अपने विरोधियों को निपटाने के लिए. उनका भी नामोनिशान नहीं रहा.
नई ताकत भारत की तवारीख को उसी दिन से देखती है:
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको।
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।।
ये कारवां एक तिहाई लेकर नहीं थम सकता. इसका मुंह सुरसा का और लक्ष्य पूरी दुनिया को जीतने का है.
साल 1947 के बाद के जयचंदों ने अपने हित के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इसका मुंह और फैलाया है.
लेकिन March of folly या यूं कहें कि जातियों के ठेकेदारों का मार्च नहीं रुकने वाला. वो सोचते हैं कि गंगा के किनारे उतरे कारवां से सौदेबाज़ी कर वो अपना भला कर लेंगे.
वो आत्मघाती लहरों पर सवार हैं. वो इतिहास जानते हुए भी सीखेंगे नहीं. आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.
मैं जानता हूं कि अभी अरबी हवाएं आपको पुरवैया लग रही हैं. रेतीली हवाएं भी आपकी कमज़ोरी भांप चुकी हैं। उन्हें ये पता है कि आपको निपटाना कैसे है.
जिग्नेश मेवाणी और मायावती भी शायद अंजाम से बेखबर नहीं होंगे. हमने बस फिर आगाह किया.