उसकी आँखों की बूँद जितना तरल था,
मेरा मन!
तैरता हुआ, स्वयं में,
विस्मृत होता हुआ स्वयं में!
उसकी बातों जितना सघन था
उसका स्पर्श,
संयम में पिरोए हुए संतुलित शब्द!
संतुलित शब्दों में निवेदन,
संयम में परन्तु बंध कहाँ पाती है नदी!
वह तरलता को सहेजता था,
मैं सहेजती थी उसे!
प्रेम में उसे सीती पिरोती थी,
सी पिरोकर फिर से तहाकर,
उसके क्षणों को खुद में रखना,
और आकाश बना देना उसे!
बहुत ही सहज हो जाता है प्रेम में
आकाश हो जाना,
मैं हो जाना चाहती थी, धरा!
आकाश की लय में नाचती हुई,
देह और मन के आकाश में
वंचित घटाओं का बरस जाना ही
प्रेम चाहता है…
– सोनाली मिश्रा