कहते हैं
तरंगें कभी नहीं मरती
हवा के पंखों पे होता है उनका आशियाना
तो आज भी
गोवर्धन में बने कुसुम सरोवर के आस पास
हवाएं कुछ मीठी मीठी रहती हैं
उनमें मिले हुए हैं कृष्ण की बांसुरी के सुर
कभी कभी सीली सीली सी छूती हैं बदन को
कृष्ण ने एक दिन भाव विभोर हो
पाँव धोए थे अपनी राधा के
अपने अश्रुओं से
यूँ तो राधा अलग कहाँ थी अपने कृष्ण से
वह तो चेतना थी कृष्ण की
शिव कहलाते हैं अर्द्धनारीश्वर
आधे नर, आधे नारी
कृष्ण तो थे पूरे के पूरे राधा
और राधा थी पूरी की पूरी कृष्ण
यूँ तो कुछ नहीं लगती थी
फिर भी सब कुछ थी
सब से ऊपर थी कृष्ण के लिए
पूजनीय थी देवी की तरह
प्रिये थी प्रेयसी की तरह
साथी थी सखी की तरह
विरहन नहीं थी
कृष्ण को समेटे हुए थी अपने अंदर
पर मिलना तो ज़रूरी था न
चेतना और परम आत्मा के विलयन के लिए
यूँ तो तुम भी हमेशा से थे मेरे ही अंदर
मेरे ही साथ, आस पास
पर इतने दिन तुम कहाँ रहे
अब तो पिला दो सरोवर से अंजुरी भर अमृत मुझ को
और मुझे ‘तुम’ कर लो…