निजता की देहरी पर बहुत उत्सव है,
और एकांत के आंगन में बैठा है कोई,
मैं बार बार एकांत का उत्सव मनाती हूँ,
मैं उस धुंए में बार बार नहाती हूँ,
एकांत का नहान,
महीन तंतुओं से रचे सघन
संवाद में होता है!
मैं बनाती हूँ चित्र अपने एकांत में,
उसका,
जो एकांत को भंग करता है,
बारम्बार,
बारम्बार!
एकांत के दीपों के बीच, मैं खोजती हूँ,
अपना उजास,
और उसका परिहास,
जो दीपों की ज्योति का पथ भटकाने!
प्रेम में जोत भटकना चाहती है,
एकांत स्वयं जाना चाहता है एकांतवास में,
और देह?
देह का क्या?
वह तो प्रेम और एकांत में खोजती है खुद को,
प्रेम में देह करती है संवाद स्वयं से!
वह जलाती है देहरी पर एक दिया,
करती है स्वागत आगंतुक का!
प्रेम में देह को समझना बहुत जटिल है,
और बहुत है जटिल केश की एक लट का बागी हो जाना!
देह का बागीपन,
सच,
और एकांत की बगिया का और एकाकी हो जाना!
प्रेम में दो मौन और गहरा मौन उत्पन्न करते हैं!
– सोनाली मिश्र