कड़वी बात : जिसकी जितनी जनसंख्या, उसकी उतनी सरकारी चाशनी

भारत के इतिहास में चलते हैं.

तब कुछ लोग मंतर रटते थे, कर्मकांड करवाते थे, आध्यात्मिक खोज में भटकते थे, शिक्षा देते थे, विद्या सिखाते थे…

कुछ राजा थे, राजा के सैन्यबल थे, राजा के खातों और टैक्स का हिसाब रखने वाले थे, राजा के दरबार मे बैठने वाले नीति निर्माता थे, भेदिये जासूस और अय्यार थे…

पूंजी से पूंजी बनाने वाले सेठ थे, सस्ता खरीद कर महंगा बेचने वाले व्यापारी थे, अनाज उगाकर अनाज में टैक्स देने वाले किसान थे, सब्जी भाजी उगाने वाले छोटे किसान थे…

लोहे-पीतल-अष्टधातु पर काम करने वाले लोहार थे, कपड़े बुनने वाले बुनकर थे, सुतार थे, सिलावट थे, माली थे, नाउ थे, साफ सफाई के चूड़े थे, कसाई थे, शिकारी थे, चर्मकार थे, शिल्पकार थे, शस्त्रकार थे, चरवाहे थे, अरे सब प्रकार के प्रोफेशन थे…

भारत के इतिहास में बाप बेटे को सिखा देता था, परिवार ही यूनिवर्सिटी था, बाकी और पुराने इतिहास में चले जाएं तो बकरी चराने वाला बच्चा तक्षशिला भी पहुंच जाता था, क्योंकि समाज मे चाणक्य जैसे शिक्षक घूमते थे… (शिक्षा का विषय फिर कभी)

जब रणभेरी बजती थी, जोकि भारत मे बहुत बार बजी. तब मोटे हाथ वाले किसान, कुम्हार, लुहार, कसाई, चर्मकार, ग्वाले सैन्यबल में हाथ जोड़ देते थे.

राजा जीतने के बाद इनको ज़मीनें बांट देता, जमीन के हिसाब से किसान-कुम्हार बढ़कर जमींदार हो जाते, नम्बरदार हो जाते, पटेल हो जाते…

पैसा लगाने वाले भामाशाह पैसा लगाते, और जीत कर राजा उनके व्यापार में चार चांद लगवा देता…

बाकी रुचि अनुसार कुछ कला या ज्ञान सीखकर इंसान अपना कार्यक्षेत्र बदल लेता, तो उपनाम बदल लेता.

जैसे दुकानों के बोर्ड होते हैं, वैसे इंसानों के उपनाम ये घोषणा कर देते कि उनको कौन सी कला आती है. कला और कौशल के हिसाब से नाम होना ही यह सिद्ध करता है कि कौशल बदला जा सकता था, वरना आज की तरह पिता या गांव के नाम पर फिक्स उपनाम का चलन होता.

खैर, अब वर्तमान में आइए और ये बताइये कि कितनी स्टील फैक्टरियों में लोहार को जगह है?

कितनी टेक्सटाइल मिलों में बुनकर, सुतार, सिलावटों को जगह है?

कितने IAS PCS के काम पटेलों (गांव के मुखिया) के हवाले हैं?

भारत की कितनी डेरियों के काम ग्वालों के हाथ हैं?

कितनी पुलिस और सेना इन मोटे हाथ वालों के हवाले है?

भारत देश में, जहां हर skill के लिए एक समाज था, जहां वो समाज समय के साथ skill को पैना करता जाता था.

वहां आज ये हालात हैं कि लोहार को SAIL में नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी का एग्ज़ाम लिखना पड़ेगा, उस एग्ज़ाम के 500 सवालों में शायद 10 लोहे से जुड़े होंगे और 400 सवाल कुछ रट कर ही उत्तरित किये जा सकेंगे.

भारत के लाखों वैद्य, यदि डॉक्टर बनना चाहे तो वही अंग्रेजी में exam लिखो, बायो के साथ फिजिक्स और केमिस्ट्री भी चाटो… लाखों की फीस भरो और फिर डॉक्टर बनो.

मतलब डॉक्टर को डॉक्टर होने के लिए हमारे पास नापने का पैमाना है किसी अंग्रेज़ी परीक्षा के नम्बर. (हां आजकल कुछ परीक्षाएं अन्य भाषा में हो गयी हैं, लेकिन मुद्दा वो नहीं है)

यदि नम्बरों से उपयोगिता तय कर रहे हो, तो ऐसे सारे लोग जो आरक्षण विरोधी है, उन पर खुलकर हँसने का मन करता है… अरे होशियारों, ये नम्बर कमाने वाले ही तो सरकारी अफसर बनते हैं, यही तो पूरे देश को सत्तर सालों से ऑफिस-ऑफिस खिला रहे हैं…

अगर नम्बर वाला efficient होता है तो जाकर अम्बानी और अडानी के नम्बर पता करवा लेना… उनकी औलादों के नम्बर पता करवा लेना…

एग्ज़ाम की रैंक से यदि यह तय होता है कि इंसान उस प्रोफेशन के लिए अनुकूल है या नहीं, तो मेकैनिकल इंजीनियरिंग के टॉपर से पूछना कि वो IT में नौकरी क्यों करता है, सबसे अधिक नम्बर कमाने वाला टीचर क्यों नहीं बनता है…

खेल तो लल्ला पैसा कमाने का है… वो भी नौकरी से पैसा कमाने का… उसमें भी ऐसी नौकरी मिल जाये जो कभी मरेगी ही नहीं… काम न करो तो दुगनी आय… ऐसी चाशनी किसे न अच्छी लगे…

लोहार का हक यदि नम्बर मारने वाले हैं तो फिर आरक्षण बिल्कुल होना चाइए… वो भी जनसंख्या हिसाब से. जिसकी जितनी जनसंख्या, उसकी उतनी सरकारी चाशनी…

समझ न आई हो तो एक और बात, बच्चे पैदा करना तो बड़े आसानी से प्रकृति ही सिखा देती है, एक काम करो उसका भी exam रख दो…

पैदा होते ही सबकी नसबन्दी, जो exam पास करे उसकी नस खोली जाएगी… उसको परमिट मिलेगा बच्चा पैदा करने का…

फिर ये SC/ST, OBC और तुम्हारे गरीब जनरल वाले सब मर जायेंगे… फिर जीना आराम से सरकारी नौकरी करते हुए…

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