बन्दरों का एक समूह था, जो फलों के बगिचों मे फल तोड़ कर खाया करते थे. माली की मार और डन्डे भी खाते थे, रोज पिटते थे.
उनका एक सरदार भी था जो सभी बंदरो से ज्यादा समझदार था. एक दिन बन्दरों के कर्मठ और जुझारू सरदार ने सब बन्दरों से विचार-विमर्श कर निश्चय किया कि रोज माली के डन्डे खाने से बेहतर है कि यदि हम अपना फलों का बगीचा लगा लें तो इतने फल मिलेंगे कि हर एक के हिस्से मे 15-15 फल आ सकते हैं हैं, हमें फल खाने में कोई रोक टोक भी नहीं होगी और हमारे *अच्छे दिन आ जाएंगे*.
सभी बन्दरों को यह प्रस्ताव बहुत पसन्द आया. जोर शोर से गड्ढे खोद कर फलो के बीज बो दिये गये.
पूरी रात बन्दरों ने बेसब्री से इन्तज़ार किया और सुबह देखा तो फलों के पौधे भी नहीं आये थे! जिसे देखकर बंदर भड़क गए और सरदार को गरियाने लगे और नारे लगाने लगे, “कहाँ है हमारे 15-15 फल”, *”क्या यही अच्छे दिन है?”*.
सरदार ने इनकी मूर्खता पर अपना सिर पिट लिया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला, “भाईयों और बहनो, अभी तो हमने बीज बोया है, मुझे थोड़ा समय और दे दो, फल आने मे थोड़ा समय लगता है.” इस बार तो बंदर मान गए.
दो चार दिन बन्दरों ने और इन्तज़ार किया, परन्तु पौधे नहीं आये, अब मूर्ख बन्दरों से नहीं रहा गया तो उन्होंने मिट्टी हटाई – देखा फलो के बीज जैसे के तैसे मिले.
बन्दरों ने कहा – सरदार फेंकू है, झूठ बोलते हैं. हमारे कभी अच्छे दिन नहीं आने वाले. हमारी किस्मत में तो माली के डन्डे ही लिखे हैं और बन्दरों ने सभी गड्ढे खोद कर फलों के बीज निकाल निकाल कर फेंक दिये. पुन: अपने भोजन के लिये माली की मार और डन्डे खाने लगे.
ज़रा सोचना कहीं आप भी बन्दरों वाली हरकत तो नहीं कर रहे हो?
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