मोदी को पीएम बनाने में आपके योगदान के अपने कारण होंगे, लेकिन सिर्फ गोधरा को मत बनाइये कारण

गोधरा, गुजरात 2002. मोदी जी की पहचान यही है और हमने उनको प्रधानमन्त्री इसीलिये बनाया है.

मोदी जी गोधरा की ही रोटी खा रहे है और हम उनकी रोटी में घी लगा कर उनको इसीलिये खिला रहे है.

हम ने ही नरेंद्र मोदी को मोदी जी बनाया है और हम ही हैं जो 2019 में उन्हें फिर से नरेंद्र मोदी बना देंगे.

आप इसको मेरा उदगार समझ कर, मेरे लिये बिल्कुल भी ताली न बजाये और न ही आक्रोश का प्रदर्शन कीजियेगा क्योंकि ये सब उदगार, कुछ राष्ट्रवादियों और हिंदुत्व के समर्थकों के हैं, जो अक्सर सोशल मिडिया पर इससे मिलते जुलते शब्दो में अपनी बात रखते हुए दिख जाते है.

कई बार मन करता है कि इन उदगारों पर कुछ टिप्पणी करूँ, लेकिन फिर यह सोच कर रुक जाता हूँ कि यह भी एक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और इसी बहाने लोगों के अंदर की छटपटाहट बाहर निकल कर उनको शांति देती होगी.

ऐसा नही है कि मेरे लिये गोधरा महत्वपूर्ण नहीं है या फिर नरेंद्र मोदी की मोदी जी बनने तक की यात्रा में उसकी भूमिका नहीं है, लेकिन सिर्फ गोधरा ही मोदी है यह मैं स्वीकार नहीं करता हूं. गोधरा के आगे भी एक यथार्थ है और मेरा मानना है कि उस को जान कर स्वीकार करना भारत और हमारे भविष्य के लिये श्रेष्ठ होगा.

लोगों को एक बात अपने दिमाग से बड़े आराम से निकाल देनी चाहिये कि गोधरा के कारण नरेंद्र मोदी, मोदी जी बने है. हाँ, यह बात बिल्कुल अलग है कि कुछ लोगों ने 2002 को देख कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमन्त्री के रूप में देखने का सपना जरूर देखा था.

यदि गोधरा को ठीक से समझना है तो यह तथ्य स्वीकार करना होगा कि गोधरा में 57 हिन्दू कारसेवकों की हत्या के आक्रोश में गुजरात में जो दंगे हुए थे, उसमें मुसलमान के साथ हिन्दू भी मारे गए थे.

गुजरात में गोधरा की प्रतिक्रिया में सड़क पर मोदी नहीं उतरे थे, वहां के गुजराती सड़क पर निकले थे और उन्होंने दशकों के उत्पीड़न का प्रतिकार किया था.

जब पूरे गुजरात मे दंगे फैले तो उस वक्त केंद्र में अटलबिहारी बाजपेयी जी प्रधानमन्त्री थे और वह अपनी उदारवादी छवि को लेकर बेहद सचेत रहते थे.

शुरू में जब कांग्रेस और अन्य सेक्युलरों ने गुजरात के दंगो के लिए मोदी जी पर दोषारोपण किया था तब उन लोगों का असली निशाना, मोदी जी न होकर दिल्ली में अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार थी.

वे लोग, इस दंगे का इस्तेमाल, जनमानस में बीजेपी को मुस्लिम विरोधी व केंद्र की एनडीए सरकार को असफल सिद्ध करने के लिये कर रहे थे.

उन लोगों ने, बाजपेयी जी के करीबी लोगों के माध्यम से यह दबाव बनाया कि गुजरात के कारण उनकी छवि खराब हो रही है और इस लिए मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाना चाहिये.

बाजपेयी जी भी अपनी सेक्युलर छवि के प्रति इतना सचेत थे कि सारी सच्चाई जानने के बाद भी वे मोदी जी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने को तैयार हो गये थे. लेकिन उस वक्त, बाजपेयी जी की इच्छा के विरुद्ध पूरा संगठन मोदी जी के पक्ष में खड़ा हो गया था और वे मुख्यमंत्री बने रहे थे.

इसी निर्णय के बाद से ही सारी मीडिया, वामपंथी, लिबरल बुद्धिजीवी और मुस्लिम वोट बैंक पर जीने वाले राजनैतिक दलों ने मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू कर दिया और उसमें एनजीओ की भूमिका पहली बार सामने आयी थी.

उस दुष्प्रचार का असर यह हुआ है कि जिस मीडिया के लोगों को, जो लोग आज प्रेस्टीट्यूट्स कह कर बुलाते है, वही लोग उनके पिछले 16 वर्षो से चलाये जा रहे झूठ के कथानक पर विश्वास कर रहे हैं और इसी कारण, ‘उन्होंने नरेंद्र मोदी को मोदी जी बनाया है’ यह मान कर बैठ गये है.

क्या कभी आप लोगों ने ठंडे दिमाग से यह सोचा है कि क्या कारण है कि 2002 से पूरी मीडिया, विदेशी धन से चलने वाले एनजीओ और सेक्युलर वर्ग का प्रचार तन्त्र, एक राज्य के, पहली बार बने मुख्यमंत्री के राजनैतिक जीवन को समाप्त करने के लिए, देश ही नही बल्कि विदेश में भी इतनी कर्मठता से लगा हुआ था?

क्या यह लोग इतने दूरदर्शी थे कि उन्हें 2002 में ही यह ज्ञान प्राप्त हो गया था कि यह नरेंद्र मोदी नाम का व्यक्ति 12 साल बाद 2014 में कांग्रेस को हरा कर प्रधानमंत्री बन जायेगा और उसको खत्म कर देगा?

क्या 2002 में इन सबने यह कल्पना कर ली थी कि भविष्य में मुस्लिम वोट के बिना भी केंद्र में सरकारें बन सकती हैं?

ऊपर के यही तीन प्रश्न सिद्ध करते हैं कि नरेंद्र मोदी के विरोध की कहानी कुछ और है, जिस पर न सेक्युलर मण्डली बोलती है और न ही स्वयं बीजेपी के लोग इसे स्वीकार करते हैं.

काँग्रेस, मीडिया और अन्य राजनैतिक दलों के लिए गोधरा, गुजरात एक ढाल है जिसके पीछे यह लोग अपने मोदी विरोध के कारणों को छुपाने में बेहद सफल रहे हैं.

क्या आपको याद है कि मोदी को गुजरात में मुख्यमंत्री बनाया गया था तब गुजरात के क्या हाल थे?

2001 में जब केशुभाई पटेल को हटाकर, मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब बीजेपी की सरकार भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता में डूबी हुयी थी और भुज में आये भूकम्प से बनी परिस्थितयों को संभालने में निष्फल रही थी.

इन परिस्थितयों में नरेंद्र मोदी को जब गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया था तब उनकी कार्यशैली का सबसे पहला शिकार बना था भ्रष्टाचार. जिस दिन से वे कुर्सी पर बैठे थे उसी दिन से सत्ता के गलियारों पर चलने वाले जितने दलाल और लॉबिस्ट थे उनकी दुकानें उजड़ गयी थीं. गुजरात एक व्यापारी समाज का राज्य है जहाँ, धंधे में सब चलता था, वह खत्म कर दिया गया था.

इन दलालों और लॉबिस्ट में मीडिया के पत्रकार और उनके मालिक भी थे. कांग्रेसी संस्कृति में, यह वर्ग हमेशा से पल्लवित हुआ था, जिस पर रोक लग गयी थी. यही कांग्रेस का पाला पोसा गया इकोसिस्टम था, जो उसको बार बार सत्ता में लाता था.

उनकी कार्यशैली का दूसरा शिकार गुजरात के अवैध धंधे हुये थे, जिसमें अवैध शराब और स्मगलिंग प्रमुख थी. पाकिस्तान की सीमा से लगे इस राज्य के अवैध धंधे में मुस्लिम समुदाय का अच्छा खास दखल था, जो नये शासन में चरमरा गया था.

गुजरात में जो मोदी जी के तेवर दिख रहे थे उससे गुजरात की कांग्रेस, बीजेपी के मोदी विरोधी और बड़े लॉबिस्ट, तीनों ही त्रस्त थे और इसी कारण गुजरात में बड़े पैमाने में अशांति फ़ैलाने के लिए गोधरा की घटना को अंजाम दिया गया था.

अब क्योंकि कांग्रेस के लोग इसमें सीधे रूप से शामिल थे इसलिये मीडिया ने शुरू से इस बात को दबा दिया था. जब इस घटना के आक्रोश में दंगे भड़के तब मोदी ने दंगे रोकने के लिए अपनी पुलिस को पूरी छूट दी थी.

तब इसका परिणाम यह हुआ था कि जिन मुहल्लों या इलाकों में पहले पुलिस घुसने की हिम्मत नहीं करती थी, वो वहां तक पहुंची और सख्ती से दंगों को रोका गया था.

गुजरात में पुलिस का उन इलाको में पहुंचना जहाँ कभी पुलिस का कानून नहीं चलता था, उसने वहां उपजे घेटो चरित्र को चटका दिया था और इसने पहली बार मुस्लिम समाज के मानस (साइकी) को तोड़ दिया था.

इसका सीधा असर पूरे भारत के मुस्लिम समाज पर पड़ा था क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से पहली बार उनकी मनमानी करने पर लगाम लगी थी, जिसे उन्होंने कांग्रेस के बढ़ावे पर अपना अधिकार मान लिया था.

गुजरात में नरेंद्र मोदी के आने के एक वर्ष में जो कुछ हुआ था वह भारत की मौजूदा राजनैतिक वातावरण के विरुद्ध था. जिस राजनैतिक व्यवस्था और दलाल संस्कृति में नेता, नौकरशाह और मीडिया जीने के अभ्यस्त थे और उसमें फलफूल रहे थे, उसमें किसी को भी नरेंद्र मोदी द्वारा शासन चलाने का तरीका स्वीकार्य नहीं था.

इन सबको एहसास था कि ऐसे आदमी का राजनीति में लम्बे समय तक रहना इन सभी के लिए घातक है. उनको इस बात का भी विश्वास हो चला था कि यदि यह सत्ता में पैर जमा लेगा तो 1947 से बनाया गया कांग्रेसी इकोसिस्टम टूट जायेगा.

वे लोग इस बात से भी मानसिक अवसाद में थे कि नरेंद्र मोदी की शख्सियत के राजनीतिज्ञ को वह नहीं जानते हैं और यही बात इनकी हीनता बन गयी, जो कालांतर में घृणा के रूप में आज हम सबको दिख रही है.

मैं मानता हूँ मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने में आपके योगदान देने के अपने कारण होंगे लेकिन सिर्फ गोधरा, गुजरात 2002 को कारण मत बनाइये.

भविष्य उज्जवल है लेकिन सारी अभिलाषाएं आपके हिसाब से, आपकी प्राथमिकता के आधार पर पूरी होंगी, यह उम्मीद मोदी जी से रखना भी छोड़ दीजिये.

आपने, 7 दशकों की जकड़न से स्वतंत्र होने के लिये अपना नेतृत्व चुना है, उनसे चंद वर्षो में हताश होने की भूल मत कीजिये.

2019, 2014 से अलग कहानी है. 2014 में कांग्रेसी इकोसिस्टम जिसमें स्वयं बीजेपी का एक वर्ग भी है, को यह विश्वास ही नहीं था कि परिवर्तन होगा लेकिन 2019 की लड़ाई ज्यादा भयानक होगी क्योंकि यह इसी इकोसिस्टम के अपने अस्तिव की रक्षा की लड़ाई होगी.

नेतृत्व पर भरोसा करे और राष्ट्र हित में निःस्वार्थ 2019 के समर में कूद पड़िये.

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