माथे पर सूरज सजाकर,
आलता लगे पाँव
जब धरा पर रखती है सुबह,
किसी राजकुमारी की भाँति लगती है.
महकते उसके तन से
प्रकृति का कण कण
सुवासित हो उठता है…
घड़ी की टिक टिक के साथ कदम
गंतव्य की ओर बढ़ाती
होती जाती है वह व्यस्त…
धीरे धीरे रूप-यौवन
होने लगता है अस्त-व्यस्त
शिथिल होने लगता है बालों का जूड़ा.
बिखर जाती हैं –
बेतरतीब, लापरवाह कुछ अलकें…
आटा गूँथते हाँथों से उन्हें हटाते
गालों पर लग जाता है सूखा आटा,
लेकिन खुद से बेफिक्र,
हथेली पर रखे जीरे और हींग से
छौंक लगाती है दोपहरी का…
चेहरा धो, बालों को सवाँर कर
खोलती है पश्चिम की खिड़की
क्षितिज पर रखी शाम को
अपने इर्द-गिर्द लपेट कर…
दूर देखती है
समुद्र के किनारे
बैठी है सितारों से सजी रात..
थकी हारी शाम-
रात के कांधे पर धर देती है अपना सिर,
रात, जाने कैसे पढ़ लेती है
उसकी पलकों पर लिखी भाषा . . .
अपनी हथेलियों से उसका चेहरा थाम
उसके माथे पर धर देती है
एक शीतल चुंबन !!
एकाएक पिघलने लगता है सूरज का ताप,
उभर आता है श्वेत-श्याम चंद्रमा
रात अपने विशाल सीने में
छुपा लेती है शाम को
रात गुनगुनाती है धीरे धीरे
प्रेम के गीत,
फैल जाता है चाँदी सा उजास
ना जाने कब सो जाती है सुबह..
आखिर, ब्रह्ममुहूर्त मे उठना होता है उसे.
घड़ी की टिक टिक नियत समय पर
जगा ही देती है उसे,
समय का चक्र भला कब रुकता है
सुबह फ़िर करने लगती है अपना श्रृंगार . . .
– अपर्णा त्रिपाठी