मैं जैसे
कमरे की गर्म हवा
तुम जैसे
ख़स का पर्दा खिड़की पर टँगा,
मैं जैसे
नाक और होंठ के बीच चुचुआती बूँदें
तुम जैसे
रंगीन मलमल का रूमाल,
मैं जैसे
रखा रह गया कच्चा दूध
तुम जैसे
चुटकी भर मीठा सोडा,
मैं जैसे
दोपहर में भटका पथिक
तुम जैसे
छतनार की ठंडी छाँव,
मैं जैसे
फ़र्श पर मक्खियों की चिप चिप
तुम जैसे
फिनायल का पोंछा फिर फिर,
मैं जैसे
गर्म लू मन मौजी
तुम जैसे
चटपटी कैरी की लौंजी,
मैं जैसे
दिन की छोटी भूख
तुम जैसे
कटा ठंडा लाल तरबूज़,
मैं जैसे
लाल घमौरी की खेप
तुम जैसे
ऐलो वीरा का बना लेप,
मैं जैसे
मुंडेर पर उतरी उदास शाम
तुम जैसे
अल्फोंसों की पेटी का आम,
मैं जैसे
नानी के घर बजता रेडियो मर्फी
तुम जैसे
गाढ़ी मलाई की घर जमी क़ुल्फ़ी….
हर बार कँपकँपाती लौ को हाथों से बचा
देवालय के भूगर्भ का उजास बन जाते हो
जीवन के उत्तरार्ध की थकावट में तुम
गुलकंद की तासीर वाली तरावट बन जाते हो
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एक पंखे की छत के नीचे, फटी जिल्द की डायरी
पीले पन्नों में धड़कती, उम्रदराज़ मुहब्बत के
………ठंडी तासीर की गर्म कहानी…..
– अंजना टंडन