कई बार मन करता है ब्रह्माण्ड की मुंडेर पर चढ़ कर
अंगूठे के बल पर खड़ी हो जाऊं
तुम्हारी ऊंगली थामे
पूरा अंतरिक्ष घूम आऊँ
बालों को छत से लटकाकर
तुम्हें दूं निमंत्रण
और संग तुम्हारे पृथ्वी की धुरी का
पूरा एक चक्कर लगाऊँ
कई बार मन करता है
लांघ जाऊं वो सारी लकीरें
जिसने सीमा शब्द को निर्मित किया
या उन सारे शब्दों की
तोड़ दूं जंज़ीरे
जिसने भाव को बंदी किया
प्राकट्य का समय करीब आने लगता है
तो माया के रहस्यों में रस आने लगता है…
मैंने इस रहस्यमयी समय में
बहुत सीमित शब्दकोष में
सबसे रचनात्मक कवितायेँ लिखी हैं
ऐसे कई भाव
मेरे भावकोष में सम्मिलित हुए हैं
जो मुझे ही अब तक ज्ञात नहीं थे
मैंने कविताओं के प्रकटीकरण के लिए
साहित्य के सारे नियमों को
रखा है ताक पर
अध्यात्म के नाम पर
ली है पूरी स्वतंत्रता
जीवन के नाम पर
सारी साँसों को लेने दिया है उच्छवास
मोक्ष का डर दिखाकर
उम्र को जल्दी जल्दी
पूरा जीने को मजबूर किया है
मैं मौन होने से पहले पूरे शब्दकोष को
कविताओं में उड़ेल देना चाहती हूँ
क्योंकि मैं जानती हूँ
मुलाक़ात पर भावकोष
इतना समृद्ध होगा
कि मौन के अतिरिक्त
मुझ पर कुछ अवतरित नहीं होगा..
– माँ जीवन शैफाली