अगर आप ने भी ऐसी घटनाएँ देखी हैं, तो आप का क्या निरीक्षण रहा है?
रास्ते पर अगर किसी कार से जाते परिवार के साथ कोई झगड़ा हो जाता है और मामला तू तू मैं मैं से हाथापाई पर आ जाता है तो मैंने अक्सर देखा है कि हिंदुओं और मुस्लिमों की प्रतिक्रियाएँ अलग होती हैं.
और यहाँ में केवल उस कार में बैठे परिवार की ही बात कर रहा हूँ, राह चलते लोगों की भूमिकाओं पर जान बूझकर बात नहीं ला रहा.
अक्सर यह देखता हूँ कि हिन्दू महिलाएं पुरुष को रोकती हैं. कोई तो ऐन मौके पर उसका हाथ भी पकड़ कर खींचती है जिसके कारण वो मार खाता है.
कभी ऐसे में मामला बहुत ही बिगड़ भी जाता है लेकिन तब भी वो सामनेवाले को कोसती हैं, भगवान को दोष देती है, राह चलते लोग दूर रहे उनको कोसती है लेकिन खुद उसने पति का हाथ पीछे खींच कर सही किया या नहीं, यह विचार भी उसे छूता नहीं. अगर पति / पुत्र या जो भी साथ में हो पुरुष वो अगर मारामारी कर रहा है तो यह हाथ मलते चीखती चिल्लाती रहती है.
इसके विपरीत मुस्लिम महिलाओं को मैंने कई ऐसे मामलों में देखा है कि वे भद्दी गालियां देती हैं, और स्वयं भी हाथापाई में सक्रिय हो जाती हैं, ताकि महिला पर हाथ न उठाया जाये, और उठाया तो उससे लाभ उठाया जा सके. बच्चे हैं तो वे भी कन्फ़्यूज्ड नहीं रहते, कुछ भी लेकर जुट जाते हैं, वहीं हिन्दू औरत अपने बच्चों को पीछे खींचती है.
मुझे मुस्लिम महिलाओं और बच्चों का रवैया पसंद है. वे सही होते हैं या गलत, यह मुद्दा मैं यहाँ नहीं देख रहा, लड़ना वे शुरू करते हैं या नहीं, यह भी मुद्दा मैं नहीं देख रहा.
तोते की आँख की तरह मुझे एक ही मुद्दा दिखता है, और वो है कि सभी लोग लड़ने में जुट जाते हैं. लड़ाई वर्चस्व की होती है या अस्तित्व की, यह मुद्दा भी बाजू रखिए. लड़ाई, लड़ाई होती है और जीतना आवश्यक है और उसमें सब का साथ आवश्यक है, यही भावना उनमें प्रबल है. और यह केवल एक यथार्थ आंकलन है, बाकी कुछ नहीं.
आज बंगाल में जो हो रहा है या कश्मीर में जो हो चुका है, उसको ले कर मेरी यही भावना रही है. कोई आए हमें बचाए, यही भावना दिख रही है. बाकी वहाँ के सेक्युलर जो हैं सो हैं. कभी कभी लगता है कि विद्वान का सर्वत्र पूज्य होना अपनी जगह है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि जिन्हें पूज रहे हैं वे विद्वान अगस्ति हैं या कालनेमी.
आप खुद लड़ेंगे ही नहीं तो कहाँ तक बचेंगे? सांड को समझना चाहिए कि वो कुत्ते को एक टक्कर से धराशायी कर सकता है. करना भी चाहिए, नहीं तो कुत्ता तो काट खाने के लिए ही पैदा होता है.
अब जो मारकाट हो रही है उसपर बचाओ बचाओ के नारे लग रहे हैं. उसी को लेकर केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करने का मौका ढूंढ रहे हैं कई लोग. उनके नामों पर न जाएँ, उनकी जाति पर न जाएँ, हैं ये हिन्दू घरों की ही संतान लेकिन हिन्दू होने से इतना ही संबंध है. बाकी इनका व्यक्त होने का अंदाज अच्छा होता है तो बहकावे में भले भले लोग आ जाते हैं. आलोचना आसान होती है.
वैसे यहाँ काँग्रेसी नेता भी बंगाली हिंदुओं को न बचाने के लिए मोदी जी की आलोचना करते दिख जाएं तो आश्चर्य न कीजिये, मणि शंकर, रणदीप सुरजेवाला, संजय झा, आनंद शर्मा जैसे लोग भी स्टेज पर आकर कह सकते हैं कि मोदी ने बंगाली हिन्दू को नहीं बचाया, और अगर उनके खर्चे से मंच माला माइक और मुफ्त में मीडिया कवरेज मिलता हो तो मोदी से नाराज राष्ट्रवादी हिन्दू भी वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकते हैं और उसे निष्पक्ष आलोचना कहकर सफाई भी दे सकते हैं.
अन्य जगहों के हिन्दू अगर खुद को देखें कि इनसे कितना अलग हैं, अलग हैं भी या नहीं, और अगर इसपर काम करें तो कल इनके जैसी खुद की गति होने से बच सकता हैं. इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना.