हर अर्द्धविराम पर देह रुकती थी,
विश्राम की तहों को ताकती थी,
फिर चल देती थी विराम की तलाश में,
देह विराम खोजती है,
विराम की तलाश में क्लांत होते हुए,
विरक्त नहीं होती!
देह को विरक्त होना आता नहीं,
देह जानती है संलग्नता और
निर्लिप्तता की सीमा और परिभाषा.
वह करती है परिभाषित स्पर्श को,
स्पंदन को!
वह उपयोग और उपभोग को भी हंसकर
टालती है!
सच,
देह की निश्छलता सीमाओं में बांधी नहीं जा सकती,
और न ही
जानना सरल है सरल सी देह को!
सुनते हैं,
जोगी जानते हैं,
क्या है देह, क्या है देह से परे!
- सोनाली मिश्र