- मनमोहन शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली में अनेक अनूठी इमारतें हैं. उनमें शामिल है मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज के सामने स्थित खूनी दरवाजा.
कहा जाता है कि आज भी जब कभी बारिश होती है तो यह दरवाज़ा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के अत्याचारों को यादकर खून के आंसू बहाता है.
इतिहासकारों के अनुसार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया तो अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फर अपने कुछ परिवारजनों सहित लाल किला से भागकर हुमायूं के मकबरे में शरण लेने के लिए चला गया था.
अंग्रेजों के दबाव पर बाद में सम्राट को एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी कैप्टन हडसन के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा.
बताया जाता है कि जब शाही मुगल कैदियों का यह काफिला दिल्ली गेट के समीप पहुंचा तो हडसन ने उस बैलगाड़ी को रोक दिया जिसमें बहादुरशाह जफर के दो बेटे मिर्ज़ा मुगल, मिर्ज़ा खिजुर सुल्तान और पोता मिर्ज़ा अबू बख्त बैठे हुए थे. शेष शाही कैदियों को लालकिला भेज दिया गया.
मुस्लिम इतिहासकार ख्वाजा हसन निज़ामी के अनुसार ज़ालिम हडसन ने पहले इन तीनों मुगल शहज़ादों को बैलगाड़ी से नीचे उतारा और एक लाइन में खड़ा करके उन्हें गोली से उड़ा दिया.
इस पर भी इस ज़ालिम को संतोष नहीं हुआ और उसने तलवार से इन तीनों शहज़ादों के सिर काट दिए और उनके बहते हुए खून के तीन घूंट पिए.
हडसन ने चिल्लाकर कहा ‘‘अगर मैं इन बागियों का खून नहीं पीता तो पागल हो जाता’’.
निज़ामी के अनुसार इन तीनों शहज़ादों के बे-सिर शवों को कुत्तों के आगे खाने के लिए फेंक दिया गया.
उनके कटे हुए तीनों सिरों को इस दरवाज़े पर लटका दिया गया ताकि दिल्ली के मजबूर नागरिक इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें. यह सिर वहां एक हफ्ते तक लटकते रहे.
एक अन्य अंग्रेज इतिहासकार जॉन विलियम के अनुसार अंग्रेजों ने इन तीनों शहज़ादों के कटे हुए सिरों को एक बड़े थाल में रखकर मजबूर और लाचार शहंशाह बहादुरशाह ज़फर को पेश किया और व्यंग्य करते हुए कहा “शहंशाह! यह कम्पनी बहादुर की ओर से आपको नज़र है.” इसके बाद इन कटे हुए सिरों को इस दरवाज़े पर लटकाया गया था.
खूनी दरवाज़ा अंग्रेजों के इस ज़ुल्म को आज तक नहीं भूला. जब कभी बारिश होती है तो इस दरवाजे से रिस-रिसकर जो पानी फर्श पर गिरता है उसका रंग लाल होता है.