
मैं इस आत्मकथा को कुछ घबराहट के साथ लिखना शुरू कर रहा हूं. यह निश्चित रुप से मेरी लिखी हुई आखिरी किताब होगी- जीवन की सांध्य बेला में मेरी कलम से लिखी अंतिम रचना.
मेरे भीतर के लेखक की स्याही तेजी से चुक रही है. मुझमें एक और उपन्यास लिखने की ताकत अब बाकी नहीं; बहुत सी कहानियां अधलिखी पड़ी हैं और मुझमें उन्हें ख़त्म करने की ऊर्जा अब रही नहीं.
मैं उन्नासी साल का हो गया हूं. यह आत्मकथा भी कहां तक लिख पाऊंगा, नहीं जानता. बुढ़ापा मुझ पर सरकता आ रहा है, इस बात का एहसास रोज़ कोई न कोई बात करा देती है.
मुझे कभी अपनी याददाश्त पर बहुत नाज़ था. अब वह क्षीण हो रही है. अब मैं अकसर अपना फोन नम्बर भी भूल जाता हूं.
हो सकता है जल्द ही सठियापे में गर्क होकर मैं फोन पर ख़ुद अपने को बुलाने की कोशिश करता नजर आऊं. मेरी दोनों आंखों में मोतिया बिंद बढ़ रहा है. मेरे प्रोस्ट्रैट ग्रंथि बढ़ गई है, इसी वजह से कभी मुझे पेशाब कराने के लिए ठीक से बटन खोलने का वक़्त भी नहीं मिलता.
पिछले दस साल से मैं आतंकवादी संगठनों की हिट लिस्ट पर हूं. मुझे नहीं लगता कि आतंकवादी मुझे निशाना बना पाएंगे. लेकिन अगर वे ऐसा कर लेंगे, तो मैं उनका शुक्रगुज़ार रहूंगा कि उन्होंने मुझे बुढ़ापे की तकलीफों से भी निजात दिलाई और बैड पैन में पाखाना करके नर्सों से अपना पेंदा साफ कराने की शर्मिंदगी से भी.
मेरे माता पिता दोनों बहुत लंबे समय तक जिए थे और मरने से पहले आखिरी चुस्की ली थी. मुझे उम्मीद है कि जब मेरा वक़्त आएगा तो मैं भी लंबे सफर के लिए रवाना होने के लिए अपने गिलास को उठा सकूंगा.
मैं अपनी अभिव्यक्ति बिना किसी शर्म या पछतावे के कर रहा हूं. बैंजामिन फ्रैंकलिन ने लिखा था-
अगर चाहते हो कि तुम्हें
तुम्हारे मरते और नष्ट होते ही भुला न दिया जाय
तो या तो पढ़ने लायक कुछ लिख डालो
या कुछ ऐसा कर डालो जिस पर कुछ लिखा जाय……
– खुशवंत सिंह के अंतिम उपन्यास और आत्मकथा- सच प्यार और थोड़ी सी शरारत से….
अंग्रेजी के प्रसिद्ध पत्रकार, स्तम्भकार और कथाकार खुशवंत सिंह की आत्मकथा सिर्फ़ आत्मकथा नहीं, अपने समय का बयान है. एक पत्रकार की हैसियत से उनके सम्पर्कों का दायरा बहुत बड़ा रहा है.
इस आत्मकथा के माध्यम से उन्होंने अपने जीवन के राजनीतिक, सामाजिक माहौल की पुनर्रचना तो की ही है, पत्रकारिता की दुनिया में झांकने का मौका भी मुहैया किया है. भातर के इतिहास में यह दौर हर दृष्टि से निर्णायक रहा है.
इस प्रक्रिया में न जाने कितनी जानी मानी हस्तियां बेनकाब हुई हैं और न जाने कितनी घटनाओं पर से पर्दा उठा है. ऐसा करते हुए खुशवंत सिंह ने हैरत में डालनेवाली साहसिकता का परिचय दिया है.
खुशवंत सिंह यह काम बड़ी निर्ममता और बेबाकी के साथ करते थे. ख़ास बात यह है कि इस प्रक्रिया में औरों के साथ उन्होंने ख़ुद को भी नहीं बख़्शा है. वक़्त के सामने खड़े होकर वे उसे पूरी तटस्थता से देखने की कोशिश करते थे. इस कोशिश में वे एक हद तक ख़ुद अपने सामने भी खड़े हैं- ठीक उसी शरारत भरी शैली में जिससे मैलिस स्तंभ के पाठक बखूबी परिचित हैं, जिसमें न मुरौवत है और न संकोच.
उनकी ज़िंदगी और उनके वक़्त की दास्तान में थोड़ी सी गप है, कुछ गुदगुदाने की कोशिश है, कुछ मशहूर हस्तियों की चीर-फाड़ और कुछ मनोरंजन के साथ बहुत कुछ जानकारी भी.