पहले भी कई बार लिखा है कि घर में अठारह घंटे आध्यात्मिक चैनल चलते ही रहता है. कई बार खीझ भी जाता हूं तो अक्सर बैठ कर सहभागी भी बन जाता हूं. कल से हरिद्वार का दृश्य देख-देख कर विभोर हो रहा हूं. स्वामी रामदेव ने कल उच्च शिक्षा प्राप्त 92 विभूतियों को -जिनमें 41 बहनें भी हैं- संन्यास में दीक्षित कर उन्हें राष्ट्र को समर्पित किया है.
सारे नव संन्यासी देश-विदेश से अभियांत्रिकी-प्रबंधन आदि की पेशेवर शिक्षा प्राप्त राष्ट्र की अगली पंक्ति की प्रतिभायें हैं. ऐसे लोगों का समाज के लिए समर्पित होना वास्तव में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी उपलब्धि के बतौर दर्ज किया जाना चाहिए.
स्वामी जी के अनुसार कठिनतम प्रतिस्पर्द्धा के बाद चयनित इन महावीरों को पतंजलि के देश भर के आगामी प्रकल्पों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जायेगी. बहरहाल!
देश में न ही साधु-संतों की कोई कमी है और न ही यह कोई पहली बार हुआ है जब लोगों ने वैराग्य लिया है. नयी बात यह है कि हर तरह की उर्जा से लबरेज़, इस बार राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने का संकल्प लिए लोगों ने ‘गंगा स्नान’ किया है, यह विलक्षण बात है. हंसते-खिलखिलाते दैदीप्यमान नक्षत्र जैसे ये लोग नव-भारत के आधार बनेंगे, यह भरोसा हो रहा है.
गोस्वामी जी ने मानस में कलियुग का जिक्र करते हुए लिखा है ‘नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी.’ यानी कलयुग में सामान्यतया ‘फिसल गए तो हर-हर गंगे’ जैसा ही होता है संन्यास का स्वरूप.
अगर आप समाज में कोई जगह नहीं बना पाए हों, किसी कुंठा से घिरे हों, निर्धन हो गए हों, किसी से धोखा खाए हों … तो आप पलायन जैसा करते हुए यह मार्ग चुनेंगे. नैराश्य और औदास्य के साथ. ज़ाहिर है तब वहां जा कर भी अततः आपकी कुंठा बढ़ेगी ही. इसके उलट जैसा उत्साह और उमंग कल से हरिद्वार में दिख रहा, वह एक नयी ही कहानी है जिसके रचयिता रामदेव बाबा को साधुवाद.
बाबा ने एक बड़ा जोखिम भी लिया है. ऊपर के चौपाई में ‘नारि मुए’ से यह आशय भी है कि संन्यास केवल पुरुषों के लिए था लेकिन, इसे बदलने की लगातार कोशिशें पहले भी हुई हैं जिसकी एक बड़ी कड़ी कल की घटना है.
इसके अपने खतरे हो सकते हैं लेकिन निश्चय ही यह उठाया जाना चाहिए. ऐसे समय में जब बहुराष्ट्रीय-वामपंथी-साम्राज्यवादी तत्व, मीडिया के सहारे खुर्दबीन लेकर आपके पीछे पड़े हों, तब ऐसा करना ज्यादा बड़े साहस का कार्य है.
ऐसा साहस दिखाने वाला व्यक्ति महान ही कहा जाना चाहिए. हम आम जनता भी खुद को इतना कम से कम अवश्य बदलें कि हर वक़्त छिद्र तलाशने के काम में ही नहीं जुटे रहें. जहां थोडा बहुत कमी भी दिखे तो नज़रअंदाज़ कर बड़े लक्ष्य के प्रति अपना ध्यान एकत्र रखें.
महात्मा बुद्ध के बारे में कहा जाता है कि स्त्रियों को दीक्षित करने का अंततः निर्णय लेते हुए उन्होंने कहा था- “पहले हमारा संघ पांच हज़ार वर्ष तक चलने वाला था, अब यह पांच सौ वर्ष ही चलेगा.”
अगर इस कीमत पर भी माताओं-बहनों को कार्य का अवसर मिले तो इस मूल्य को मामूली ही मानिए. कोई प्रकल्प कितना लंबा चलता है इससे ज्यादा महत्त्व इस बात का होना चाहिए कि उस ने किया कितना है. इस मानदंड पर हमेशा बाबा खरे साबित हुए हैं.
बधाई…अभिनंदन.