भगवान राम की कुण्डली में ही लिखा है उनका पुरुषोत्तम होना

भगवान राम की कुण्डली के विषय में हमारे पास कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है.

इस विषय में एक मात्र विश्वनीय स्रोत ‘वाल्मीकि रामायण’ ही है और वहाँ भी बहुत ही कम जानकारी दी गई है.

हम उसी जानकारी के आधार पर प्रभु श्री राम की कुण्डली को समझने का प्रयास करेंगे.

भगवान राम के जन्म के समय का वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी कहते हैं कि उस दिन चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि है, पुनर्वसु नक्षत्र है, कर्क लग्न में बृहस्पति और चन्द्रमा है तथा पाँच ग्रह स्वराशि व उच्च राशि में स्थित हैं.

तुलसीदास जी भी रामचरितमानस में इसी की ओर इशारा कर रहे हैं. तुलसी बाबा कहते हैं – “नवमी तिथि मधुमास पुनीता, सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता। मध्य दिवस अति सीत न घामा, पावन काल लोक बिश्रामा॥”

लगभग सभी ज्योतिषियों ने वाल्मीकि रामायण के गलत हिन्दी अनुवाद के कारण पाँच ग्रहों को उच्च का मान लिया जबकि उनकी कुण्डली में बृहस्पति लग्न में कर्क राशि में उच्च का है, शनि चौथे घर में तुला राशि में उच्च का है, मंगल सातवें घर में मकर राशि में उच्च का है, शुक्र नौवें घर में मीन राशि में उच्च का है.

ज्योतिषियों ने सूर्य को दसवें घर में मेष राशि में उच्च का मानते हुए स्थापित कर दिया है, जिससे उनके पाँच ग्रह उच्च के हो सकें. जबकि वाल्मीकि रामायण की शर्त को पूरा करने के लिए चार ग्रह उच्च के और चन्द्रमा का स्वराशि कर्क में स्थापित होना ही पर्याप्त है.

सूर्य किसी कीमत पर मेष राशि में नहीं हो सकता क्योंकि भगवान का जन्म नवमी तिथि को हुआ है और चन्द्रमा कर्क राशि में पुनर्वसु नक्षत्र में है. कर्क राशि में पुनर्वसु नक्षत्र का मात्र अन्तिम एक चरण ही पड़ता है.

इसका मतलब है कि चन्द्रमा कर्क राशि में 3 डिग्री 20 मिनट के भीतर ही स्थित है. तिथि का सम्बंध चन्द्रमा और सूर्य के बीच के दूरी से है. इन दोनों के बीच के प्रत्येक 12 डिग्री के दूरी के साथ एक तिथि बदल जाती है. प्रभु का जन्म नवमी तिथि को हुआ है, इस प्रकार चन्द्रमा आठ तिथियाँ चल कर नौवें तिथि में प्रवेश करेगा.

एक तिथि के लिए चन्द्रमा को 12 डिग्री चलना पड़ता है तो आठ तिथियों के लिए 96 डिग्री चलना पड़ेगा. एक राशि 30 डिग्री का होता है. यदि हम सूर्य को मेष राशि में स्थित करें और उसे 0 डिग्री का भी मान लें, तो भी सूर्य और चन्द्रमा की दूरी 96 डिग्री नहीं हो पायेगी. मेष, वृष और मिथुन तीनों राशि मिला कर 90 डिग्री ही हो पाती है.

इसमें कर्क राशि के पुनर्वसु के चन्द्रमा की अधिकतम डिग्री भी जोड़ेंगे तो वो 3 डिग्री 20 मिनट ही होगी. इस प्रकार सूर्य से चन्द्रमा के बीच अधिकतम दूरी 93 डिग्री 20 मिनट ही हो पा रही है, जबकि नवमी तिथि के लिए कम से कम 96 डिग्री की दूरी नितान्त आवश्यक है.

इसलिए हमें मानना पड़ेगा कि भगवान की कुण्डली में सूर्य मेष राशि में उच्च का नहीं है, बल्कि एक घर पीछे नवम भाव में मीन राशि में है.

मुझे भी शुरू में दु:ख हो रहा था कि अरे! हमारे प्रभु का सूर्य ही उच्च का नहीं है और सिर्फ चार ही ग्रह उच्च के हैं, पाँच ग्रह उच्च के नहीं हो पाये.

एक दिन यही सोचते हुए दु:खी मन से सो गया. सपने में ही मेरा मन गणना करने लगा कि अगर भगवान का नक्षत्र पुनर्वसु है तथा कर्क राशि में है तो ये उस नक्षत्र का आखिरी चरण होगा और इस आधार पर यह नवमांश कुण्डली में कर्क राशि में ही स्थित होगा.

तुरन्त मेरी नींद खुल गई, मैं उठकर यह सुनिश्चित करने लगा कि जो सपने में देखा वो सटीक बैठ रहा है या नहीं? वो बिलकुल सही था. भगवान के नवमांश, दशमांश आदि कुण्डलियों का कहीं जिक्र नहीं है.

मुझे खुशी हुई कि कम से कम चन्द्रमा की नवमांश की स्थिति तो पता चला. जब कोई ग्रह जन्म कुण्डली में जिस राशि में हो, अगर नवमांश कुण्डली में भी उसी राशि में हो तो उस ग्रह को वर्गोत्तम माना जाता है और उसको उच्च ग्रह के समान समझा जाता है.

प्रभु की कुण्डली में तो चन्द्रमा उनका लग्नेश होकर स्वराशि में स्थित होते हुए वर्गोत्तम है अर्थात हम कह सकते हैं कि यह चन्द्रमा उच्च के ग्रहों से भी अधिक बलवान और शुभ फलदायक है.

भगवान राम के लग्न में वर्गोत्तम स्वराशि का लग्नेश चन्द्रमा उच्च के गुरु के साथ स्थित है. चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में स्थित है, जिसका स्वामी गुरु है. ऐसे शुभ चन्द्रमा और गुरु के लग्न में योग से प्रबल कीर्ति देनेवाला ‘गजकेसरी योग’ का निर्माण हो गया है.

नवें भाव में गुरु की मीन राशि पर स्थित सूर्य को उच्च का गुरु अपनी नवम शुभ दृष्टि से देख रहा है, ये ‘राजलक्षण योग’ का निर्माण कर रहा है.

तीसरे भाव का स्वामी दसवें भाव में है, जो छोटे भाईयों के लिए उन्नतिकारक है. चौथे घर में उच्च का शनि बैठा है जोकि सप्तमेश है, जिसे बारहवें घर का स्वामी बुध देख रहा है, जिसकी वजह से पत्नी के साथ घर छोड़ने का योग बना.

सातवें घर में उच्च का मंगल है. उच्च के मंगल को बहुत अधिक ‘मंगल दोष’ नहीं लगता. जब कुण्डली में उच्च का गुरु और उच्च का मंगल आमने-सामने एक-दूसरे को देख रहे हों, तो जातक का व्यक्तित्व नैतिक गुणों की पराकाष्ठा होता है.

इन्हीं योगों के कारण हमारे प्रभु श्री राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहलाये. उनके एक पत्नीव्रत धारण करने में नवम भाव में उच्च के शुक्र का भी विशेष योगदान है, जिसे लग्न में बैठा उच्च का गुरु अपनी नवम दृष्टि से देखकर अति शुभता प्रदान कर रहा है.

सूर्य का नवें घर में स्थित होना, पिता के लिए अच्छा नहीं माना जाता. इसके अलावा नवमेश गुरु पर शनि और मंगल की दृष्टि पिता के लिए प्राणघातक है. इस कारण उन्हें पिता का सुख बहुत समय तक नहीं मिल पाया.

कुछ ज्योतिषी भगवान की कुण्डली में राहु को तीसरे घर में मानते हैं, पर अगर राहु तीसरे घर में होता तो उन्हें छोटे भाईयों का वो आत्मीय सुख कभी नहीं मिल पाता जो उन्हें मिला. सामान्यतः तीसरे घर का राहु छोटे भाईयों के सुख से वंचित कर देता है.

भगवान की कुण्डली में राहु छठें घर में धनु राशि में स्थित है. धनु राशि का प्रतीक चिन्ह धनुष-बाण है. हमारे प्रभु हमेशा कोदण्ड धारण करते हैं. वैसे, पुनर्वसु नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह भी बाणों से भरा हुआ तरकश है. इसीलिए हमारे प्रभु सुदर्शन चक्रधारी नहीं हैं बल्कि कोदण्डधारी हैं.

छठें घर का राहु शत्रुओं का नाश भी करता है. षष्ठेश गुरु उच्च का लग्न में बैठा है जो बहुत प्रतापी शत्रु की तरफ इशारा कर रहा है, लेकिन उस शत्रु पर विजय भी प्राप्त होगी. उनका सामना रावण जैसे प्रतापी शत्रु से हुआ और प्रभु ने उसके वंश का समूल नाश कर दिया.

छठा भाव पालतू जानवरों का भी प्रतिनिधित्व करता है. उच्च के षष्ठेश के कारण ही प्रभु को पराक्रमी, प्रतापी व निष्ठावान वानर, भालू, रीछ आदि जीवों की विशाल सेना मिली, जिसकी सहायता से उन्होंने दुर्दांत असुरों की सेना को परास्त किया.

वर्गोत्तम शुभ चन्द्रमा को उच्च के शनि और मंगल देख रहे हैं. इस योग के कारण उन्हें चौदह वर्ष तक संन्यासी का जीवन जीना पड़ा. तुलसी बाबा भी कहते हैं – “तापस वेश विशेष उदासू, चौदह वर्ष राम बनवासू।”

प्रभु का केतु बारहवें घर में है, जोकि मोक्षकारक है. प्रभु अपने साथ अपनी संपूर्ण प्रजा को सरयू नदी के भीतर से सशरीर अपने साकेत धाम ले गए.

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा, कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा

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