मुझे क्यों नहीं महसूस होती ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’!

कुछ दिन पूर्व देश की फ़िज़ा में ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’ महसूस कराने की कोशिश की गई तो मैं ये जानने के लिये बेचैन हो गया कि आखिर ये ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’ कैसी है जो इस भारत भूमि पर अपनी उम्र के लगभग तीन दशक गुजारने के बावजूद मुझे महसूस नहीं हुई?

मैं ध्यान साधना में चला गया और उस अवस्था में जाकर कई लोगों और समूहों से मिला जिन्होंने मुझे इस कश्मीरियत की ख़ुशबू के बारे में बताया.

इस साधना में मेरी पहली मुलाकात एक कश्मीरी पंडित की आत्मा से हुई. मैंने उनसे पूछा, आपको शरीर छोड़े कितना अरसा हुआ?

उन्होंने कहा, करीब सवा छह सौ साल. मैंने पूछा, कैसे?

उन्होंने कहा, इसी कश्मीर में सिकंदर नाम का एक शासक गुजरा जिसने और जिसके मजहबी गुरु सैय्यद मुहम्मद हमदानी ने हम कश्मीर पंडितों को जीवित ही बोरे में भरकर डल झील में फिंकवा दिया था. अब मेरी मृत्यु तो उसी झील में डूब कर हो गई और उसी झील में काश्मीरियत की खुशबू भी घुल गई इसलिये आपको मेरे पास से तो अधिक खुशबू महसूस नहीं होगी. आप आगे जाओ.

आगे बढ़ा तो किसी ने मुझे जोर से आवाज़ दी और कहा, कश्मीरियत की ख़ुशबू सूंघने चले हो और मुझसे मिले बिना ही चले जाओगे.

मैंने पूछा, आपका परिचय?

उसने कहा, मैं सर्वानंद प्रेमी कौल की आत्मा हूँ. आप मुझसे और मेरे पीछे खड़े लोगों से मिल लो, हम लोग बेशक मृत हैं पर हम ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’ के ‘ज़िंदा-सबूत’ हैं.

मैंने पूछा, कैसे? तो सर्वानंद कौल कहने लगे, नब्बे के शुरूआती दशक की बात है. मैं माथे पर तिलक सजाये जा रहा था, ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’ के अलंबरदारों ने देख लिया और मुझे मारा-पीटा. खैर, उतने से मुझ काफ़िर का क्या होता तो उनमें से एक छेनी और हथौड़ी ले आया और मेरे तिलक लगाने की जगह को छेनी और हथौड़ी से फोड़ दिया.

सर्वानंद अपने माथे पर उस फोड़े हुई जगह को दिखा ही रहा था कि गिरिजा नाम की एक नव-यौवना की आवाज़ आई.

मैं उस ओर मुड़ा तो वो मुझसे कहने लगी, मैं एक शिक्षिका थी, जब घाटी में तकबीर के नारे बुलंद हो रहे थे तो डर से मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया. उसके बाद मेरे साथ काम करने वाले शिक्षकगण और उस स्कूल के कर्मचारी मेरे घर आये और मेरे परिवार वालों से कहा, गिरिजा हमारी बहन-बेटी जैसी है, इसको नौकरी छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, हमारे होते आपको गिरिजा की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं करनी चाहिये.

इस आश्वासन के बाद मैं अगले दिन जब स्कूल गई तो उसी दिन खुद को मेरा बाप-चाचा और भाई सरीखा बताने वाले उन लोगों ने मेरे साथ सामूहिक बलात्कार किया और हज़ार टुकड़ों में शरीर को काट कर जिंदा जला दिया. तुमको कश्मीरियत की खुशबू ही सूँघनी है तो मेरी जल रही बोटियाँ से उठते धुएँ में उसे महसूस करो.

कश्मीरियत की खुशबू वहीं ख़तम नहीं हुई. मुझे एक जज साहब की आत्मा भी मिली.

कहने लगे, विमान अपहरण करने वाले एक आतंकी मकबूल भट्ट को मैंने फांसी की सजा सुनाई थी, फिर जब सेवानिवृत हुआ तो एक दिन कश्मीर के महाराज बाज़ार में खरीददारी के लिये गया. मुझे अच्छी तरह याद है कि वो नवंबर, 1989 के नवंबर का महीना था.

मुझे बाज़ार में आतंकियों ने घेर लिया और गोलियों से भून दिया. मेरे आँख में गोली मारी गई और गोली मारने के बाद वो आतंकी मेरी लाश के चारों तरफ नाचते रहे और उस वीभत्स नृत्य में कश्मीरियत की खुशबू को मैंने महसूस किया था. तुम आज भी उस महाराज बाज़ार के चौक पर उस खुशबू को सूँघ सकते हो.

तभी उनको परे हटाते हुये दो भाईयों की आत्मा मुझे आती दिखाई दी. कुछ पूछने से पहले ही कहने लगे, भाईसाहब हम कोई कश्मीरी पंडित नहीं थे हम तो किश्तवाड़ के चैरसी गाँव के दो हरिजन भाई हैं जिनके चेहरे से सरे-बाज़ार जीवित ही मांस नोच ली गई और उसे हमारे सीने में भर दिया गया.

तभी एक बुढ़िया तेरह-चौदह साल की कुछ बच्चियों को लेकर आ गई और उनकी ओर इशारा करते हुये मुझसे कहा, इन बच्चियों के साथ दरिंदों ने बलात्कार किया और बलात्कार कर इसकी जाँघों पर लिख लिया “हम चाहते निज़ामे…..” कश्मीरियत की इससे बेहतर खुशबू तुमको कहीं नहीं महसूस होगी बेटा.

इनसे बात कर ही रहा था कि लद्दाखी वेशभूषा पहनी कई बौद्ध युवतियाँ दिखाई थी. मैंने पूछा, आप आत्माओं का दर्द क्या है?

उस झुण्ड से आवाजें आने लगी, हम वो हैं जिनके बारे में कश्मीर में ये कहावत मशहूर है कि एक बीवी जम्मू से, एक घाटी से और एक लद्दाख से लानी ही है.

मैंने कहा, मैं कुछ समझा नहीं. तो उन्होंने मुझे बताया कि प्रेम में फांस कर हमारा जबरन धर्मपरिवर्तन कराया गया और जब हम विरोध करने गये तो हमें कश्मीर से सैकड़ों किलोमीटर दूर उत्तर-प्रदेश के वेश्यालयों में बेच दिया गया.

हम बदनसीबों के जिस्म से उठती कश्मीरियत की खुशबू महसूस करने के लिये आपको यहाँ तक आने की जरूरत नहीं थी, वहां आपके यूपी में भी कश्मीरियत की खुशबू महसूस हो जाती जहाँ हमको बेचा गया था.

मुझे उन्हीं आत्माओं के बीच डोडा में लगभग एक दशक पहले बर्बरता से क़त्ल हुये सत्रह सिख भी मिले.

इन सबसे बात करके मेरा सर फटने लगा था तो उन्हें छोड़छाड़ के सीधा कश्मीर पहुँच गया. शायद वहां कोई खुशबू महसूस हो. वहां पहुँचा तो क्षीर-भवानी समेत सैकड़ों भग्न मंदिर और उसके अवशेष मिले. उन मंदिरों के हवन-कुंड की अग्नि तो बुझ चुकी थी पर ‘कश्मीरियत की ख़ुशबू’ उसमें से बदस्तूर जारी थी.

ये सब देख ही रहा था कि सेना का एक जवान आर्मी वाली गाड़ी लिये आते दिखा. उसे हाथ देकर रोका और पूछा, तुम तो कश्मीर में तैनात हो, तुम मुझे ‘कश्मीरियत की खुशबू’ महसूस करा सकते हो?

उसने कहा, आओ गाड़ी में बैठ जाओ, चलते-चलते महसूस कराऊँगा. वो कहने लगा, मेरा बाप एक छोटा किसान था, उसने किसी तरह मुझे बारहवीं कराया, दौड़ने-जूझने में अच्छा था, आर्मी की भर्ती आई हुई थी तो सेना में आ गया.

मुझे और मेरे जैसे जवान को तैयार करने में हमारी सरकार के लाखों रूपए खर्च होते हैं, कई सख्त ट्रेनिंग से होकर गुजरना पड़ता है, कई त्याग करने पड़ते हैं तब जाकर एक पूर्ण सैनिक में हमारा रूपान्तरण होता है.

ये बोलते-बोलते उसने मुझे पूछा, आप तो नौकरी करते हो? मेरे हाँ कहने पर उसने कहा, तो जब आप लोग छुट्टी में घर जाते हो और छुट्टियां खत्म होने के बाद भी घर से वापस कार्यक्षेत्र जाने का मन नहीं करता तो क्या करते हो?

मैंने सहजता से कहा, मेडिकल लगा कर छुट्टी बढ़वा लेता हूँ और क्या? उसने कहा, आपको मालूम है कि छुट्टी से वापस जाकर आपको टेबल-कुर्सी पर बैठकर पंखे और एसी में नौकरी करनी है फिर भी आप वापस ज्वाइन न करने के लिये बहाने बनाते हो, पर हमारे साथ ऐसा नहीं होता.

हमें छुट्टी मिलती है और कई बार अचानक छुट्टी के बीच में ही ये पता चलता है कि सीमा पर तनाव बढ़ गया और तेरी छुट्टी कैंसिल कर दी गई है और हमें वापस जाना पड़ता है. हम भी न जाने के कई बहाने बना सकते हैं, मेडिकल लगा सकते हैं पर हम ऐसा नहीं करते.

अच्छा, हमें ये भी पता होता है कि हम मौत के मुंह में जा रहें हैं, गोलियां चलेंगी और हम बचेंगे कि नहीं ये भी पता नहीं. हम वापस पहुँचते हैं तो वहां हमारी आँखों के सामने नारे लगाये जाते हैं… हम चाहते निज़ामे-मुस्तफ़ा, भारतीय कुत्तों वापस जाओ” और हमें खून का घूँट पीकर रहना पड़ता है.

फिर वहां घाटी के पत्थरबाज़ हम पर पत्थर बरसाते हैं और उल्टा वहां के नेता हम पर ही मानवाधिकार हनन का आरोप लगाते हुय मामला दर्ज करवा देते हैं. उन पत्थरों से बने ज़ख्मों से रिसते लहू में अगर तुम कश्मीरियत की खुशबू सूंघ सकते हो तो सूंघ लो.

मैंने कहा, ये सब तो ठीक है पर वो ‘कश्मीरियत की खुशबू’…

मेरी बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि दो सैनिक की आत्मायें वहां बूट पटकती हुई आ गई. मेरे पास बैठे जवान ने चुपके से मेरी कान में फुसफुसा कर कहा, इनकी पत्नियों के साथ सामूहिक बलात…. कर उनकी….

वो अपनी बात ख़त्म करता उससे पहले टीवी पर कड़ी निंदा के साथ ‘कश्मीरियत की खुशबू’ महसूस करने का सुझाव देते हुये नेता जी उपस्थित हो गये और मेरी आत्मा वापस मेरे शरीर में आ गई.

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